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प्यार के बंधन तुम्हारे जब से ढीले हो गए / कुमार अनिल
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प्यार के बंधन तुम्हारे जब से ढीले हो गए
कल्पनाओं के सुनहले पंख गीले हो गए
तुम चले तो साथ देने को बहारें चल पड़ीं
हम चले तो राह के गुल भी कंटीले हो गए
बन के मरहम वक्त ने ज़ख्मो को जितना भी भरा
याद के नश्तर भी उतने ही नुकीले हो गए
मीठी नजरों ने तुम्हारी छू लिया जब भी मुझे
कितनी क्वारी हसरतों के हाथ पीले हो गए
दिल को आईना बनाकर क्या चले हम दो कदम
इस शहर के लोग सारे पत्थरीले हो गए
तेरी गजलों में मिला वो दर्द दुनिया को 'अनिल'
पत्थरों के भी सुना है नैन गीले हो गए