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प्यार पनघटों को दे दूँगा / शंकरलाल द्विवेदी

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प्यार पनघटों को दे दूँगा

(१)
एक ग़रीब गगरिया का जब दर्द आँसुओं में छलका तो,
राखी बाँध हाथ में मेरे, सिसकी भर-भर कर यों रोई।
‘भैया भरी हुई गागर ही उठने को तैयार नहीं है-
प्यासी हूँ, पर पनघट मेरा नातेदार नहीं है कोई’।।
(२)
तुम तो कलाकार हो, बीरन! मेरी पीर तुम्हीं समझोगे-
वर्ना कोई घड़ी हमारे लिए विनाशक हो सकती है।
अब तक लाज निर्मला ही है, किन्तु सहारा नहीं मिला तो-
हर गागर पापी सागर की कभी उपासक हो सकती है।।
(३)
तब से हर अभाव की वाणी मेरे गीतों की साँसें हैं।
कैसे गला घोंट दूँ इनका अपनी सुख-सुविधा की ख़ातिर।
मैंने भाँवर फिरी भावना से जितने ये गीत जने हैं-
मैं पूरब का पूत, ब्याहता को तलाक कैसे दूँ आख़िर?।।
(४)
जब भी कजरारे मेघों की पलकें भीग-भीग जाती हैं-
लगता है, फिर से मधुवन में आज कहीं 'राधा' रोई है।
कलियों की कोमल पाँखुरियाँ, जब भी उलझी हैं काँटों में-
ऐसा लगा कि भरी सभा में लाज 'द्रौपदी' ने खोई है।।
(५)
फिर भी तुम यह दर्द-व्यक्तिगत मेरा ही समझो तो क्या है?
मुझ पर सब आक्षेप व्यर्थ हैं, मुझ से इनका क्या नाता है?
शायद देख नहीं पाते हो अपनी पीड़ा की ज्वाला में -
जलता हूँ; लेकिन पड़ोस के घर तक धुआँ नहीं जाता है।।
(६)
पर तुम तो जब बेकारों से बार-बार पूछा करते हो,
‘कैसे घूम रहे हो भाई, कहो आजकल क्या करते हो?'
सूनी पथराई आँखों में, आँसू यों करवट लेते हैं-
जैसे किसी बाँझ नारी से पूछ लिया कितने बेटे हैं।।
(७)
ख़ुशियों के स्वागत में हँस-हँस जगमग दीप जलाने वालो!-
तम की परछाईं-सी कुटियों की पीड़ा को क्या समझोगे?
व्यंग्य-बाण से बढ़ कर कोई तीख़ा तीर नहीं होता है,
विधवा से ऊपर सुहाग को और भला क्या ग़ाली दोगे।।
(८)
धारा को बहना है, आख़िर गति ही तो उसका जीवन है,
लेकिन बहे संयमित हो कर, कूलों का दायित्व यही है।
अगर किनारों के मन पर ही, रंग असंयम का चढ़ जाए,
तो फिर धारा का ऊपर से हो कर बहना बहुत सही है।।
(९)
स्नेहशील-उपकार, किसी से नाता तुम ने नहीं रखा है,
ध्यान रहे, निर्मम शासक का सत्यानाश हुआ करता है।
अधिकारों के लिए याचना पर प्रतिबन्ध लगाने वालो!-
अत्याचार सहन कर लेना भी अपराध हुआ करता है।।
(१०)
वर्ण भले हों भिन्न, सुमन सब एक बग़ीचे में खिलते हैं।
पहरेदार गुलाब द्वार पर, गन्धा आँगन में सोती है।
अपने वैभव पर इठला कर, चाहे जितना महके कोई,
गुलदस्ते में सजे फूल की उमर बड़ी छोटी होती है।।
(११)
भूल हुई हमसे जो हमने, काँटों वाले फूल चुन लिए।
पोर-पोर में चुभे, सिसकियाँ भर-भर कर पी गए लहू हम।
लेकिन अब खुल गए बुद्धि के, बंद कपाट हमारे सारे-
जो कुछ किया, हमें अब उस पर, पश्चाताप नहीं है कुछ कम।।
(१२)
कुम्भकार पर ही पतिया कर, ज्यों पनिहारिन घड़ा ख़रीदे
लेकिन भरते ही सारा जल, बूँद-बूँद कर के रिस जाए।
बरसों चतुर कुम्हार भूल कर, पाँव धरे उस गाँव नहीं फिर,
चार बात कहने-सुनने की चाहों का मन ही मर जाए।।
(१३)
अथवा ख़ीझ रहे हैं हम यों, जैसे-किसी राजकन्या ने-
राज-अवज्ञा कर इच्छा से, बुला लिया मनिहार महल में।
वही कलाई में चूड़ी दे तोड़, मिला नज़रें, हँस जाए,
चाह उठे चाँटा जड़ने की, पर ला पाए नहीं अमल में।।
(१४)
मन से तो चलता है ऐसे उद्गारों का तप्त कारवाँ,
एक स्वतंत्र साँस भर फेंके, स्वयं भानु का तन जल जाए।
लेकिन सहम गई है वाणी, ओठों की चौखट पर ऐसे-
दुलहिन पाँव धरे देहरी पर, अनायास मातम हो जाए।।
(१५)
गद्दी से भाँवर फिर कर तो अपने यों हो गए बिराने,
ज्यों विवाह के बाद, पिता से पृथक पुत्र का घर बस जाए।
कुटिल काल से घूम रहे हैं, राजनीति के विकट खिलाड़ी,
पर स्वाधीन विचारों का मन, प्रकट सत्य से क्यों कतराए।।
(१६)
अनाचार जब सहन-शक्ति की सीमाओं को लाँघ रहा हो,
भले बग़ावत ही कहलाए, शीष उठाना ही पड़ता है।
माना तुम हत्या कह कर ही, मृत्युदंड से क्या कम दोगे?
किन्तु रोग वह शिशु है जिसको गरल पिलाना ही पड़ता है।।
(१७)
भय से परिचय नया नहीं है, मैं उस बस्ती में रहता हूँ,
जहाँ अजन्मे शैशव के भी मन पर हथकड़ियों का भय है।
फिर भी अपना पुरुष परिस्थितियों के रंग में नहीं रंगा है।
वरन् परिस्थितियो को अपने लिए बदलने का निश्चय है।।
(१८)
जीवन! हाँ यह जीवन! सबको मिला हौसले से जीने को,
धार बनेगा यही, वार की चिन्ता नहीं किसी का भी हो।
हर ख़ूनी ख़ंजर को अपना फौलादी पिंजर तोड़ेगा,
पंजे से पंजा अज़माए, आए जिसकी भी मर्ज़ी हो।।
(१९)
श्रम की धरा त्याग आलस की, ऊँचाई पर चढ़ने वालो!
इतने ऊँचे चढ़ो, उतरते समय न कोई भी दहशत हो।
श्रम के बिना सृजन धरती पर सम्भव अभी नहीं हो पाया।
वे अभीष्ट तक जा पाते हैं, जिन्हें न चलने से फुरसत हो।।
(२०)
जिनके पाँव धूल से परिचय तक करने में हैं संकोची,
वे ही तलवों के छालों को, रिसता देख-देख रोते हैं।
खलिहानों में संघर्षों का अन्न मिले, तो अचरज क्या है-
जब खेतों के स्वामी, ख़ुद ही बीज विषमता के बोते हैं।।
(२१)
असमर्थों पर कंजूसी के दोषारोपण से क्या होगा?
जो सचमुच समर्थ हैं, उनको दान नहीं देना आता है।
बहुत चाहतीं हैं पतवारें सागर के सीने पर चलना;
लेकिन आज नाविकों को ही नाव नहीं खे़ना आता है।।
(२२)
शासक शूल-फूल दोनों का, सम्मिश्रण है- यह मत भूलो,
अपना दोष पराए सिर पर सत्ता आख़िर क्यों मढ़ती है?
कठिन न्याय के दण्ड, तुम्हारे हाथ थाम भी कैसे पाएँ?
भक्षण कर नवनीत, तुम्हारे अधरों पर खरोंच पड़ती है।।
(२३)
बूढ़ी तकदीरों का सिक्का, बहुत चल चुका, अब न चलेगा।
पानी उतर चुका है सिर से, अब जागा है यौवन सोया।
यौवन! हाँ, यौवन जागा है, अब न रहेगा भूखा-नंगा,
छोड़ो यह सिंहासन छोड़ो, मत सोचो क्या पाया-खोया।।
(२४)
बहुत प्यार पाया है अब तक, बूढ़े श्रृंगारों ने लेकिन-
करुणा यों संदिग्ध हो गई, जैसे-सपनों की सच्चाई।
तुम निष्काम कर्मयोगी हो, परिणामों से डरना कैसा?
दो दिन के जीवन में चाही, तुम ने अपनों की अच्छाई।।
(२५)
तुम अनुमान कहोगे इस को, अंधकार का रूपक दे कर,
क्योंकि सुरक्षा का सम्बल भी यहीं सरलता से मिलता है।
एक लक्ष्य पर अगर चतुर्दिक तीरों के सध गए निशाने-
कोई तीर अँधेरे में भी सही निशाने पर लगता है।।
(२६)
अपराधों की परछाईं तक से तुम परिचित नहीं हुए हो।
शेष सभी को नित्य ग्रहण सा, लाखों बार कहा- ‘लगता है’।
अब तक सुना-सुना था; लेकिन आज सहज विश्वास हो गया,
सावन के अंधों को सारा आलम हरा-हरा लगता है।।
(२७)
मुझसे कहते हो जुलूस के साथ चलूँ, नारे लगवाऊँ-
जय-जयकार करूँ गीतों मे, यशोगान 'चारण-युग' जैसा।
कहने से पहले यदि अपना मुख दर्पण में देखा होता-
सारा दर्प हिरन हो जाता, रूप पता चलता, है कैसा?
(२८)
जमघट में चलने वालों के बहुधा पाँव बहक जाते हैं-
मेरी इस स्वाधीन क़लम को तन्हाई से प्यार हो गया।
भावों में डूबा रहता था, अग-जग की पीड़ा का गायक-
उस मन का संकल्प अचानक, जाने क्यों ख़ूँख़्वार हो गया।।
(२९)
यों तो अपनी गतिविधियों पर पहरेदारी बहुत कड़ी है।
फिर भी कलाकार पर बंधन, कम ही कामयाब होते हैं।
परम्पराओं की ज़ंजीरें जिसने तोड़ी हों इठला कर-
उसकी वाणी में, परिवर्तन के स्वर लाजवाब होते हैं।।
(३०)
सच को आँच, असत को अंचल, वर्तमान की तुला यही है।
ये कैसे क़ानून, सभी पर-जो समान लागू न हो सकें?
अवनि प्रपीड़ित, पर अम्बर की आँखों में उन्मुक्त हँसी है।
वे क्या नयन, पराया दुःख जो देख कभी गीले न हो सकें?
(३१)
अगर कभी ईश्वर से मेरी, दो क्षण को भी भेंट हो गई।
उसकी न्याय-निष्ठता का सब, दंभ मरघटों को दे दूँगा।
धरती पर अमृत बिखरेगा, अम्बर को प्यासा रक्खूँगा-
हर गागर के लिए अछूता प्यार पनघटों को दे दूँगा।।
-२ मार्च, १९६४