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प्यासा गगन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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1
यह जीवन
यों स्वर्णिम हो गया
दर्द खो गया
नील नभ में कहीं
जो स्पर्श तेरा मिला।
2
प्यासा गगन
था मेरा यह मन
भटका सदा
सरस धरा तुम
सींचे सूखे अधर
3
पलकें खुलीं
झरा प्यार निर्झर
पिया जीभर
ओक बने अधर
सरस मन हुआ।
4
थाती तुम्हारी
प्राण मेरे विकल
अर्पित करूँ
भर भर अँजुरी
मेरे प्रेम देवता।
5
सृष्टि प्रेम की
सींचती प्रतिपल
आए प्रलय
बूँद थी मैं तुम्हारी
तुम्हीं में हूँ विलय।
6
प्रभु के आगे
शीश जब झुकाया
तुमको पाया।
खड़े मेरे सामने
अंक में आ समाए।