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प्यासी नदी / राजेन्द्र सारथी
Kavita Kosh से
अब नहीं बह रही
वह उज्जवला हंसती नदी
हांफती और कांपती-सी दिख रही
सूखी पड़ी हंसती नदी।
धार उसकी जल गई
रह गई श्मशान-सी सूनी नदी
मछुआरे जाल लेकर चले गये
गीले तटबंधों की तलाश में
रेत की अब तपन सहती जी रही
नेह की भूखी नदी।
बसंत में गुलमोहर चहकता है
सरजने को अमलतास लहकता है
नखलिस्तान का हर फूल महकता है उन्मत्त पराग से
किन्तु बबूल को हर मौसम में झेलनी है कांटों की त्रासदी
पावस ऋतु में
भले ही भरभराए सूखी नदी का दामन
लहरों, मछलियों, सीपों और शैवालों से
प्यार का संबंध नहीं रख पाएगी सूखी नदी
सबका लगाव है अब सदाबहार तलहटी से
सूखी नदी हो गई है उनके लिए
थोथी नदी।
अब नहीं बह रही
वह उज्जवला हंसती नदी
हांफती और कांपती-सी दिख रही
सूखी पड़ी प्यासी नदी।