भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्यासे पत्थर / सुरेश यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बचपन में
पढ़ी और सुनी थी
प्यासे कौवे की कहानी
जिसने
अधभरे घड़े में
डाले थे कंकर -पत्थर
फिर a-
मुहाने तक भर आये पानी को
पिया था जी भर कर
चाहतों के अधभरे घड़े में डाले
मैंने भी
श्रम और वक्त के न जाने कितने पत्थर
पानी का इंतजार किया मेरे भी होठों ने
मुहाने तक आये, लेकिन -चीखते पत्थर
प्यासे थे बहुत जो
और उनमें थी पी जाने की गहरी ललक
खुद मुझको ही - घूंट घूंट कर ।