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प्यास और पानी / केदारनाथ अग्रवाल

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एक
अब आओ न पत्थर को निचोड़कर निकाल लें पानी
न अब मिलता है जल
न अब बुझती है प्यास
बस मौन ही खड़ा है घर में नल
दमयंती के विरह में उदास
हाय रे यह हमारा अभाग्य
हाय रे यह हमारी बहरी गूँगी बेदरद मानुसपलती।

दो
आओ न अब हम तुम कपार पर अपने दे मारें
खरीदकर पाँच आने का पानी भरा नारियल
न अब मिलता है जल
बस मौन खड़ी है छुटा गई गाय की तरह बड़ी भारी खाली टंकी
हाय रे यह हमारा अभाग्य
हाय रे यह हमारी बेवफा मानुसपलटी की बेवफा बेटी टंकी।

तीन
अब आओ न अपने सिर पर बिठाल लें
जटाजूटधारी शंकर की गंगधारधारी प्रस्तर मूर्ति
जिससे मिलता रहे हमको
जेठ में त्रयतापहारी गंगोदक
और हम होते तृप्त-कछार की तरह हरे
न अब मिलता है जल
न अब बुझती है प्यास
बस मौन खड़ा है घूप से भरा भारी गरमागरम दिन
स्वयं जलता और सबको जलाता उदास दिन
हाय रे हमारा अभाग्य
हाय रे यह हमारी बेवफा मानुसपलटी का जानलेवा दिन

चार
आओ न अब
कंठ से अपने आतप्त झुलसे रेगिस्तान पर
कहीं से भगा लाई किसी क्षीण कटि नाजुक नदी के साथ चलें
और उसका अनमोल गले का मोतियों का हार तोड़ डालें
और इस तरह पाएँ आब-भरपूर आब।
क्योंकि अब मिलता नहीं हमें पानी
क्योंकि अब बुझती नहीं प्यास हमारी
हाय रे हमसे रूठी मानुसपलटी
-प्यार न करती बहरी निठुर मानुसपलटी।

रचनाकाल: संभावित १९६१