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प्यास जगी थी होकर बेकल चले गए / विनोद तिवारी

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प्यास जगी थी होकर बेकल चले गए
हिरना थे वे बेहद चंचल चले गए

दिशा-दिशा पसरा था मरुथल
रास नहीं आया यह जंगल चले गए

दिन धुँधलाए रातें काली-काली हैं
वे दिन-रैना उज्ज्वल-उज्जवल चले गए

प्यासी धरती ने कितनी मनुहारें कीं
एक-एक कर सारे बादल चले गए

नया दौर है गजरे-जूड़े विदा हुए
कजरारी आँखों से काजल चले गए

कितना रुकते और प्रवासी पंछी थे
मौसम बदला वे दल के दल चले गए