प्यास / बन रही है नई दुनिया / अमरजीत कौंके
उसने छुआ तो
सर्द शब्दों में
फिर एक बार
कँपकँपी छिड़ी
लरज़ उठीं
फिर जिस्म की सारी नसें
अद्भुत सा संगीत था
जो भीतर तक गूँज उठा
अजीब सी महक थी
जो मिट्टी में गहरे भर उठी
उसने छुआ
तो होंठों में
मुद्दत से मर चुकी
प्यास जाग उठी
तड़प उठे भीतर
फिर कितनी स्मृतियों के भँवर
ऋतुओं के रंग
इक बार फिर शोख हो गए
उसने छुआ मुझे
मन की धरती
एक बार पिफर काँप उठी
तन का जँगल
एक बार फिर जाग पड़ा
उसने छुआ मुझे
नदी इस तरह तड़पी
समंदर की बाहों में
लगता था
कि तोड़ देगी सारी सीमाएं
जो दुनिया ने
उस के लिए बनाई
बंधन सारे
संस्कारों के
जो सदियों ने
इर्द गिर्द बुने उसके
किसी नदी का
इस तरह तड़पना
वह पहली बार देख रहा था
दूर से जो नदी
भरी हुई छलकती
दिखाई देती थी
वह किनारों तक
रेत से भरी पड़ी थी
लेकिन रेत थी
कि पानी से भी
ताकतवर
नीर नहीं था
होंठों में उसके
वहाँ तो युगों की प्यास थी
जो उसकी बांहों में
इस तरह तड़पी
कि लगा
तोड़ देगी
अनंत सदियों के बंधन...
अपनी काया में
अंत की प्यास लिए
एक छलकती नदी के
होठों पर नीर तलाशते हुए
महसूस हुआ अचानक
कि नदी के होंठों पर
रेत ही रेत थी
रेत जितनी तड़प
तड़पती रेत जैसी प्यास
वह नदी के होंठों में से
नीर तलाश रहा था
नदी उसके भीतर से
एक समंदर पी जाना चाहती थी
इतनी तड़प थी नदी की प्यास में
कि उसको अपनी प्यास भूल गई
प्यास
प्यास से खेल रही थी
प्यास
प्यास से टकरा रही थी
प्यास
प्यास से प्यास बुझा रही थी
जिस्मों से पार जाने के लिए
छटपटा रही थी
कोई नहीं जानता
नदी कितनी प्यासी है
और समंदर कितना अतृप्त
नदी
अपनी प्यास में तड़पती
समंदर की तरपफ दौड़ती है
समंदर अपनी प्यास में बेचैन
बादलों की तरपफ उड़ता है
प्यास
अगर वृक्ष की हो
तो समझ लगती
प्यास
अगर रेत की हो
तो मन लगती
प्यास
जो पत्थर को लगे
तो बात बनती
लेकिन प्यास जब
पानी की रूह में
बस जाए
तो जल की प्यास को
जल कौन बुझाए
अनंत है यह
प्यास का सफर
प्यास - ज्ञान की
प्यास - मुहब्बत की
प्यास - रूह की
हर जगह
हर पल तड़पती है
प्यास
न नदियां
पी कर बुझती
न समंदर
निगल कर मिटती
न बादलों को
दामन में भर के
अंत की मोहब्बत कर के
मिटती नहीं प्यास
जागती बुझती
फिर जागती
पाँवों को
भटकन में
डाले रखती
प्यास
अनंत है यह
प्यास का सफर ...।
मेरे जन्म से भी पहले
मेरी रूह में
तड़पती थी प्यास
मेरे जन्म के बाद
यह प्यास
मेरे भीतर
मुझे बेचैन करती
सारी उम्र
मेरे पाँवों को
भटकन के रास्ते
डाले रखा इसने
कभी मिट्टी में
कभी आकाश में ढूँढा
कहाँ कहाँ
तलाशता रहा मैं
अपनी प्यास का बदल
लेकिन
जितनी बुझाई
उतनी और तीक्षण
होती गई प्यास
मेरे बाद
मेरी आत्मा में
तड़पती रहेगी
प्यास
जन्म-जन्म
मैं
जन्म लेता रहूँगा
इसी प्यास के कारण...।
मिट्टी है सिर्फ
अगर इंसान के
भीतर नहीं है
प्यास
जड़ हैं वे कदम
जिन को
भटकने का वर नहीं
पत्थर हैं वे नयन
जिनमें कोई सपना नहीं
मुर्दा है दिल
जिस में तड़प नहीं
मुर्दा है जिस्म
जिस में
किसी से मिलने की
चाहत नहीं
सूरज चढ़ता
छिप जाता
दिन उगता
रात ढ़लती
पीढ़ियां नस्लें
जन्मती
मर जातीं
लेकिन
सदा जीवित रहती
मनुष्य के भीतर
प्यास
मैं जब भी भटका
सदा
परछाईयों के पीछे भटका
मेरी प्यास को
जब भी छला
सदा रेत ने छला
मेरी प्यास का
जुनून था
कि मैं रेत और पानी में
फर्क न कर पाया
मेरी प्यास की शिखर थी
कि मैं
परछाई और असलीयत की
पहचान न कर पाया
हर चश्मे के पीछे
मैं किसी पागल मृग की तरह
दौड़ता
लेकिन पानी के पास पहुंचता
तो वह रेत बन जाता
दरअसल पानी के पीछे नहीं
मैं अपनी ही
प्यास के पीछे दौड़ रहा था
मेरा जुनून
मेरी अपनी ही प्यास की
परिक्रमा करता था
मेरी प्यास का
जुनून था
कि मैं रेत और पानी में
फर्क ना कर पाया।