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प्रकृति का हर रंग माँ पहचानती है /जय कृष्ण राय तुषार

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शीत का मौसम
ठिठुरती काँपती है |
बड़े होने तक -
हमें माँ ढांपती है |

हरा है स्वेटर मगर
मैरून बुनती है ,
नज़र धुँधली है मगर
माँ कहाँ सुनती है ,
कभी कंधे तो -
कभी कद नापती है |

रात -दिन बिखरा हुआ
माँ घर सजाती है ,
बाद्य यंत्रों के बिना
निर्गुण सुनाती है ,
पढ़ नहीं सकती
कथाएं बाँचती है |

जानती रस्में -
प्रथाएं जानती है ,
प्रकृति का हर रंग
माँ पहचानती है ,
सीढियाँ चढ़ते -
उतरते हाँफती है |


पिता कम्बल और
हम हैं शाल ओढ़े ,
भाग्य में उसके
अँगीठी और मोढ़े ,
माँ हमारा मन
परखती -जाँचती है |

एक चिड़िया की तरह
माँ घोंसला बुनती ,
वह हमारा सुर सुगम -
संगीत सा सुनती ,
उत्सवों में संग
बहू के नाचती है |