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प्रक्रिया / महेन्द्र भटनागर

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मैंने

जीवन का व्याकरण

नहीं पढ़ा,

शायद,

इसीलिए --

सही अर्थों में

जीना नहीं आया !


आत्म-प्रकाशन में

असफल अभिव्यक्ति-सा

प्रभाव-शून्य बना रहा,

इसीलिए --

रात-दिन

घर-बाहर

अनमना रहा !


मैंने

जीवन-जगत व्यवहार के

विशिष्ट शब्दों

शब्द-रूपों

और उनके प्रयोगों का

ज्ञान हासिल नहीं किया,

इसीलिएµ

तथाकथित समाज ने

मुझे अपने में

शामिल नहीं किया !

मैंने नहीं सीखा

व्यक्ति-व्यक्ति में

भेद करना,

स्थूल और सूक्ष्म

अन्तर-प्रणाली की

वैज्ञानिकता

मेरी समझ में नहीं आयी,

जो कुछ कहा

वह

व्याख्या की परिधि में

नहीं समाया,

शायद,

इसीलिए मेरा कथन

किसी को नहीं भाया !


मैंने

जीवन का व्याकरण

नहीं पढ़ा,

शायद,

इसीलिए --

अन्यों की तरह

सुख-चैन का

जीना नहीं आया !


निरन्तर

जीवन की अभिधा में

पलता रहा,

लाक्षणिकता के

गूढ़ व्यंजना के

आडम्बर नहीं फैलाये,

बहु-प्रचलित कडवे तेल के दिये-सा

आले में

चुपचुप जलता रहा,


मुहावरेदानी के

रुपहले ट्यूब

तैल-लेपित दीवारों पर

नहीं रोशनाये,

शायद,

इसीलिए --

समाज का मन-रंजन नहीं हुआ

वांछित आवर्जन नहीं हुआ !


दुनिया की चमक-दमक में

डूबा-इठलाया नहीं,

वक्र ताल पर

ध्वनि-सिद्ध कोई गीत

गाया नहीं,

अलंकार-सज्जित पात्र में

रीति-बद्ध ढंग से

जीवन का रस

पीना नहीं आया !


मैंने

जीवन का व्याकरण

नहीं पढ़ा,

शायद,

इसीलिए --

निपुण विदग्धों के समकक्ष

जीना नहीं आया !