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प्रगतिधर्मा गन्ध / रमेश रंजक

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झलके जब बून्द पसीने की
मूरत मुरझाए नगीने की ।

तन आधा ढका
           पेट भूखा
मन पोर-पोर
          दूखा-दूखा

फिर भी चेहरे पर असल आब
गरमाहट ज्यों पशमीने की ।

लघुता में बैठी
           महाव्यथा
मुझको दीखे
           जीवन्त कथा

गरिमा में गन्ध प्रगतिधर्मा
कह देगी बात करीने की ।