भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रगतिधर्मा गन्ध / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
झलके जब बून्द पसीने की
मूरत मुरझाए नगीने की ।
तन आधा ढका
पेट भूखा
मन पोर-पोर
दूखा-दूखा
फिर भी चेहरे पर असल आब
गरमाहट ज्यों पशमीने की ।
लघुता में बैठी
महाव्यथा
मुझको दीखे
जीवन्त कथा
गरिमा में गन्ध प्रगतिधर्मा
कह देगी बात करीने की ।