प्रणय का संसार मेरा / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
प्रणय का संसार मेरा।
विरह के उन्माद से क्यों बन रहा दुख का बसेरा?
प्रणय का संसार मेरा।
प्राण वंशी-रन्ध्र-चिर-स्पन्दित चिरन्तन चेतनाएँ,
दाह के आराध्य की पुरदर्द कोमल भावनाएँ,
मिलन के उच्छ्वास में घुल बन गईं हिय-वेदनाएँ,
मथित युग-युग की व्यथा से जन्म का संकीर्ण घेरा;
प्रणय का संसार मेरा।
पूर्णता की टोह में अज्ञेय-पथ पर चल रहा हू प्रणय का संसार मेरा।,
प्रेम की ज्योतिर्शिखा-सा नित्य तिल-तिल जर रहा हूँ।
साधना के ताप में तप स्वर्ण-सा बन गल रहा हूँ,
करुण-कूची-रंग से रंजित किया अद्भुत चितेरा;
प्रणय का संसार मेरा।
चिर प्रवासी शून्य-सम्बल, शिथिल-इन्द्रिय श्रान्त हूँ मैं,
सत्य-मिथ्या-ज्ञान-वंचित अति विकल उद्भ्रान्त हूँ मैं,
विश्व-घर्षण-जनित काराबद्ध जर्जर क्लान्त हूँ मैं,
अश्रुजल-कण ने डुबोया प्राण-पारावार-बेड़ा;
प्रणय का संसार मेरा।
हृदय-सुवरण-पत्र रंजित रुदन के इतिहास से याँ,
अग्निकण पैदा हुआ है जलन के निःश्वास से याँ,
स्मरण-चिन्तन-शून्य-मानस-ग्रन्थि लय-आभास से याँ,
आज द्वन्द्वाक्रान्त जीवन कर उठा चीत्कार मेरा;
प्रणय का संसार मेरा।
(रचना-काल: दिसंबर, 1937। ‘विशाल भारत’, जनवरी 1938 में प्रकाशित।)