भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रण / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
त्रेता में खरदूषण भी दावत करते थे,
मुनियों की हड्डी का एक पहाड़ बन गया,
विकट चक्र था, फँसकर वीतराग मरते थे,
शान्त तपोवन बेचारों का भाड़ बन गया
अनायास सामूहिक वध खिलवाड़ बन गया,
प्रभुता के मदमत्तों का । यह बात राम से
छिप न सकी, हिंसा कब तिल का ताड़ बन गया;
"राक्षस जब तक नहीं जाएँगे । धरा धाम से
तब तक चैन न लूँगा"; अपने दिव्य नम से
दक्षिण भुजा उठाकर यह प्रण किया और फिर
लगे कार्यसाधन में, केवल इसी काम से
तन मन जोड़ा, रहे इसी के हित स्थिर अस्थिर ।
महाकुम्भ में हत निरीह प्राणों की पीड़ा
कौन समझकर बढ़ता है लेने को बीड़ा ।