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प्रतिदान / रश्मि विभा त्रिपाठी

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दमन की उम्र कितनी है
ये तिरस्कार कितना पुराना है
जोर देती ज़हन पर
क्षीणकाय स्मृति कोसती
मुँह अँधेरे से उठकर
चौके-चूल्हे की
व्यस्तताओं के बीच
इस प्रश्न का उत्तर मगर
रात्रि के
अन्तिम पहर तक
वह सोचती
प्रतिक्षण आभास
होता है उसे अब भी
वो असाधारण साहस
मृत्यु के द्वार तक जाने का
पाँव चौखट के पार
पर आसानी से
मैं जाने क्यूँ नहीं रख सकती
गर्भ की
दुसह पीड़ा सह कर
मेरी कोख से जन्मे पुरुष को
मैंने निज हाथों से दी सम्पूर्ण सृष्टि
आह
प्रतिदान यह तो न देता
मुझे दहलीज के अंदर धकेला
मुट्ठी भर आजादी माँगने पर
दिए अनगिनत घाव
पुरुष का ‘अहम’
स्त्री के अस्तित्व से हर बार खेला !