मन मेरा आज बंधनों में
अटा पड़ा है। 
टूटने लगा है श्वास
घटने लगा है लहू का उच्छ्वास
छोड़ता नहीं डोर
इस अभिलाषा का। 
टूटती नहीं छोर
घटती नहीं होड़
मृत्यु मनाना चाहती है
दिग्विजय। 
हृदय पाना चाहता है
जीवन की लय
गीत और अवसाद में
छिड़ गई है प्रतिद्वंद्विता।