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प्रतिबिम्ब / दिनेश कुमार शुक्ल
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एक दिन जब
समुद्र शान्त था
आकाश अति विनम्र
पृथ्वी ध्यानलीन
समय की सम्पुटी में
खिला कुछ सहसा ही
द्रुम-दल-विहीन जहाँ
स्वर के आरोह पर
गूँजता गहन मौन
घट में घुमड़ता जहाँ
नाद-रुद्र
खींचता उपेक्षा की बाँह
जहाँ ढीठ प्रेम
खिला
निकट इतना कि
जैसे आभ्यन्तर में
आत्मा का फूल खिला
निपट अलभ्य
निकट इतना आकाशकुसुम
जल-थल सब ओतप्रोत
पिघले विशाल दीर्घ दर्पण में
प्रतिबिम्बित
फूल खिला
खिला और बिखर गया अकस्मात्
मधुकोष कोमलदल छिन्न-भिन्न
फिर भी
जल-थल के दर्पण में
हँसता रहा प्रतिबिम्ब
अद्भुत सुगन्ध और रंग और आकृति में
खिलता रहा बार-बार
उठता गिरता रहा दर्पण का वक्ष
साँस भरता रहा।