भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रतिरूपों की खोज / साहिल परमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जैसे तू खिचड़ी पकाने के लिए
दाल-चावल बीनती है
या आटा पीसने के लिए
गेहूँ बीनती है
वैसी ही सावधानी से
मैं लिखने बैठा हूँ कविता
प्रिया तेरे लिए।

सोचता हूँ तेरे चेहरे को
कौनसी उपमा दूँ?
बहुत काम आ चुका है चाँद –
अष्टमी का भी और पूनम का भी।
फूल भी ताज़ा नहीं रहा क भी।
फिर, मुझे तो ढूँढ़ने हैं ऐसे शब्द
जिसे तू और मैं पहचानते हों,
जीते हों
और इसलिए
मैं कहूँगा कि
मिर्च पीसने के इमामजस्ते जैसा
भले ही लम्ब-गोल हो तेरा चेहरा
या फिर
किसी अनाड़ी कारीगर द्वारा
टाँक-टांँककर ठोंक-ठोंककर
बनाए हुए खरल जैसा
चेचक के दाग से भरा
भले हो तेरा चेहरा
मैं इसे चाहता हूँ.
चसोचस चोखता हूँ।

चाय बनाते वक़्त
जितनी सावधानी तू बरतती है
कि चाय में चीनी के बदले
पिसा हुआ नमक न डल जाए
उतनी ही सतर्कता में बरतूँगा
प्रिया,
तेरे बारे में यह कविता लिखते हुए।

इसीलिए मैं तेरे दाँतों को
अनार की कली की उपमा
नहीं दे सकूँगा।
मैं तो कहूँगा कि
भुट्टे की छाली में
असमान रूप से चिपके
छोटे-बड़े दानों की तरह है तेरे दाँत।

तेरी आँखो को
मैं हिरनी के नैन
या मस्ती के जाम
नहीं कह सकूँगा।
मैं तो कहूँगा कि
बचपन में
चोटबिलीस खेलते वक़्त
दीवार से टकराकर
दो टुकड़ों में बँट जाती
गोटी के
चमकीले टुकड़ों जैसी हैं
तेरी आँखें।

मेरे पाँच पाँच बच्चों को
जन्म देकर
बिनसी हुई तेरी देह को
मैं बरस चुकी बदली
या कुम्हलाया हुआ फूल
या आम की सूख गई गुठली तो
हरगिज न कहूँगा।
मैं कहूँगा तो यही कि
पटेलों के बिगड़ैल लड़कों द्वारा
झाड़ दी हुई बेरी जैसी
तेरी देह
अब भी देती है मुझे मिठास
रंग-रोगन थोड़ा थोड़े उखड़ा हुआ
पुरानी गुड़िया भी
छोटे बच्चे को
दे सकती है इतना आनन्द।

तेरे रंग को
मैं कृष्ण की तरह काला
या नीले आकाश जैसा तो
हरगिज न कह सकूँगा।
मैं तो कहूँगा कि
माँ के सिगड़ी ख़ाली करते वक़्त
एकदम नीचे से
निकलती हुई राख जैसा है तेरा रंग
या फ़िर
माँ के ख़रीदे हुए
सस्ते गुड़ की वजह से
चखने में तो ठीक
पर दिखने में ज़रा श्याम
हलुए जैसा है तेरा रंग।

तेरे सुभाव को
मैं गुलाब जैसा गुलाबी
या बर्फ़ी जैसा मीठा तो
कह नहीं सकूँगा।
मैं तो कहूँगा कि
तेरा स्वभाव है
दारु पीते समय
खाई जाती चानी जैसा
या फ़िर ठण्डी छास रगडकर
मौज से खाए जाते
डूवे जैसा।

तेरे प्रेम को मैं गंगा की मौज
या जमना की धारा तो
हरगिज न कह सकूँगा।
मैं तो कहूँगा कि
जाड़े की भोर में
गर्म-गर्म हवा के साथ
उतनी ही खलबली से
धँसते हुए
म्यूनिसिपलिटी के नल के
खुरदरे पानी जैसा
गर्माहट भरा
और ताज़गी देने वाला है तेरा प्रेम
या फ़िर
मध्य रात्रि की मिठास को
आहिस्ता-आहिस्ता
आम की तरह
नज़ाकत से घोलते हाथ जैसा
नरम और देखभाल भरा है तेरा प्रेम।

हाँ प्रिया, मैं लिखता हूँ तेरे बारे में कविता
इसलिए रखूँगा इतना धैर्य
जितना धैर्य तू
रखती है मच्छी की खाल को
हटाते वक़्त
या फ़िर ठण्डी सुबह में
भूसे की सिगड़ी पर
बाजरे की रोटी सेंकते वक्त।

हालाँकि ऐसा है फ़िर भी
प्रलम्ब समागम से जैसे
अकुला जाती है तू
वैसे ही मैं भी
अकुला गया हूँ
यह कविता लिखते वक़्त
और फिर
पानी ज़रा ज्यादा डाल दिया गया हो
और शोरबा
ज़रा ज़्यादा हो गया हो
तो भी
तू उतार देती है
कभी उतावली से
चूल्हे पर चढ़ी हुई तरकारी
बस उतनी ही उतावली से
मैं रख देता हूँ
श्रोता या पाठक के आगे
प्रिया
तेरे बारे में लिखी गई
यह कविता।

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार