भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रतिरोध / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रेलवे जंक्शन में भीख माँग रहे बच्चे
ट्राफिक स्टॉप में फूल बेच रही वृद्ध माई
रेडलाइट एरिया का रोमांच संभाल रहे देहविक्रेता
इनमें से कोई भी नहीं मेरे दुश्मन

कश्मीर की कोहरे से निकलकर
बन्दूक़ से खेलता हुआ
राज्य को चुनौती दे रहा
कोई निर्दोष किशोर

झारखण्ड के सुदूर गाँव से
बलात फुसला कर लाई हुई बच्ची
जो तैयार होगी कुछ दिन में
और बनेगी ख्यातनाम बार गर्ल

मध्यप्रदेश का एक गरीब किसान
जिसके लिए बुन दिया है तुम्हारे राज्य ने
आत्महत्या का सरकारी फन्दा
तुम्हारे ‘स्वराज’ में व्यवस्था-विरुद्ध लड़ रहे छापामार
तुम्हारे ‘रामराज’ में
इंसान का ख़ून पीने के विरुद्ध में कटिबद्ध पत्रकार
प्रतिरोध की कविताएँ लिख रहे ‘सन्दिग्ध कवि’

इनमें से कोई भी नहीं मेरे पराए

अभी मैं कह नहीं सकती
कि मैं तुम्हें घृणा करती हूँ!
मैं तुम्हारी दुश्मन हूँ!

लेकिन
तुम मेरे मित्र कभी नहीं हुए
कितनी दुःख की बात है!

तुम मुझे
केवल हारा हुआ ही देखना चाहते हो?
केवल थका हुआ ही देखना चाहते हो?
क्यों?

कैसे भूल सके तुम
मेरा शौर्य
जो माँगा, दिया
मेरा पसीना
वह भी चुपचाप दे दिया
दिल से बहता हुआ गरम–गरम ख़ून!
अपने आपको बंजर कर अपनी ही सीने में बहती नदीयाँ!!
मैंने तुम्हें क्या नहीं दिया?

लेकिन
जब कण्ठ दबोचकर माँग रहे हो मेरा श्वास
अब कोई संशय नहीं
मुझे आजीवन अपने आप खड़ा होने न देनेवाला
असली दुश्मन कौन था?
इस धरती में कभी दास मोचन न चाहने वाला
खूँखार सामन्त कौन था?

मेरे सपनों के भोग खाते–खाते
कभी तृप्त न होनेवाली दिल्ली!
मेरे ही ख़ून से खड़ा होकर
वीरता का डींग हाँकने वाली दिल्ली!!

देखो
उठ रहा है धीरे–धीरे
राख झाड़ता हुआ
जि़न्दा आदमी

कल तक तो
मुर्दे की तरह झुका था तुम्हारे सामने
और मार रहा था कोरा काग़ज़ में अँगूठा
लेकिन आज वही मुर्दा भी
खड़ा है जिन्दा हो कर

बोलो
इस जिते जागते इंसान से
लड़ने के लिए तैयार हो?