भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रतीक्षा / ओम नागर
Kavita Kosh से
सूरज उग के ढल गया
अस्त हो गया
जाने कितनी बार
तवे की तरह तपने लगी धरती
जेठ की भरी दुपहरी में
भन्नाए बादलों की तरह
जिस राह रूठ के चली गयी थीं तुम
उसी राह पर
मन की रीती छांगल ले
आज भी खड़ा हूं मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा में।