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प्रतीक्षा / ‘हामिदी’ काश्मीरी

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साँय साँय साँय
साँय साँय साँय
हुई पागल उपवन के बाहर की
तूफ़ानी हवा
डोल रही है टहनी-टहनी
उड़ा है पत्तों का गर्दगुबार
छाया अंधकार शून्य गगन में
लगे काँच झरोखों के
खनकने।

चौखट के भीतर उपवन का काँच दल
धूल से भरी पलकों की ओट से
आज भी ताकती है पीछे
ललसाई नज़रों से
उभरती नहीं छाया कोई पगध्वनियों की
धुएँ के सागर में उजाड़ बस्ती की
थकी जर्जर एक बेला
मृत भुजाओं से किए हुए है
शून्य का आलिंगन।

हाय अकेली हूँ मन घबराता है
तुम्हारी यादें भरमाती हैं और
तुम्हारी पुकार भी
पौढ़ियों पर चलते हुए
क़दमों की आहट से
खो देती है सुधबुध
गहरे नीरव ठहाकों की
होती है भ्रांति
हाँफती फिरती हूँ कमरे-कमरे
विवश हूँ पागल बनाते हैं मुझे
दोषी लम्हे
खो जाती हॅँू खामोशी के अँधेरे में
घिर जाती हूँ चारों ओर से
चिन्ताओं की विरक्ति से।
बाँह का सिरहाना लिए
रात बीती अनचाहे ख़यालों में
लगी जब आँख सुबह के झुटपुटे में
उठ रहे थे रेत के बवंडर
हुई गड़गड़ाहट गगन में
फैला घना धुआँ दहकता हुए खूनी हाथ पागल
सूरज जैसे कोई खोपड़ी
आग के थपेड़े
निकली चीत्कार
आँखे खोली फेनिल हुए होंठ
विषादग्रस्त हुआ मैं
मेरी दशा की भनक भी न पड़ी क्या
आँख भी फड़की नहीं कभी।

पत्र मिला
जाग गई वेदना
तुम्हारी यह चुप्पी ! घातक चुप्पी
साँसे रूक गई
हाय !
कब तक तुम्हारी याद में
अकेली !
काँच की खिड़की पर
जलती रहूँगी
आँधी में दीये की भाँति!