प्रत्यक्ष / घटोत्कच / अमरेन्द्र
धरती के सब धूल उड़ैलेॅ
बोॅर गाछ केॅ तोॅर लगैलेॅ
ताड़ गिरैनें, नदी उठैलेॅ
पर्वत, पानी जकां बहैलेॅ
सौनोॅ के बादल रं करिया
भादोॅ केरोॅ रात अन्हरिया
आगिन नाँखि आँख जरैनें
खोहे नाँखि मुँह केॅ बैनें
भूत भयानक भरखर राती
खड़ा रहा जों बड़का हाथी
ऐलेॅ बिन्डोबोॅ रं बहलेॅ
जेकरा देखी जम्मो दहलेॅ
विकट हिडिम्बा पूत घटुत्कच
शांति-सभा में भारी कचकच
हाथ लगै कि कुछ न बोलोॅ
गाछी में जों हिलै डमोलोॅ
सूइये नाँखि रोय्यां-रोय्यां
नाक लगै जों दू ठो कुय्यां
मूंछ लगै जों बड़का फरसा
घन्नोॅ जों भादो के बरखा
देह पहाड़े रं छै भारी
मूंछ लगै छै वैं पर आरी
कान; ताड़ के पंखा डोलै
सुरसै रं आपनोॅ मुँह खोलै।
बोलै लेॅ जों गल्लोॅ फाड़ै
लागै हाथी ठो चिग्घाड़ै
ओकरोॅ चल्लें भुय्यां काँपै
कौरव केॅ धुरदा रं चाँपै।
चटनी रं पीसै छोटका केॅ
सागे रं मोचरै मोटका केॅ
बुढ़भा केॅ गेंदे रं पटकै
जों आगू सें ऊ नै हटकै।
नकुल-भीम ई देखी गदगद
गिरै खुशी के मारे लदलद
कृष्ण-युधिष्ठिर मुस्काबै छै
पाण्डव-सेना ठिठियाबै छै।
मिली-जुली मारै कठहस्सी
कौरव केॅ लागै हुरकुस्सी
हुन्नें राकस घटोत्कच ठो
एक्के साथें मारै दस ठो।