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प्रथम अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥

कल्याण साधन अलग हैं, और प्रेम भोग भी अलग हैं,
भिन्न फलदाता हैं दोनों, इनसे मानव सलग हैं।
श्रेय कल्याणक अलौकिक, परे सुख संसार है,
श्रेय नित्य है सौख्य सिंधु, प्रेम दुःख व्यापार है॥ [ १ ]

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥२॥

अति धीर ज्ञानी प्रेय श्रेय के रूप का चिंतन करें,
दोनों का अन्तर समझ कर ही श्रेय का साधन करें।
मंद बुद्धि मनुष्य भौतिक, योगक्षेम में लींन हैं,
तत्व ज्ञानी नीर क्षीर विवेक प्रभु तल्लीन हैं॥ [ २ ]

स त्वं प्रियान् प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः।
नैतां सृडकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥३॥

लौकिक अलौकिक दिव्य भोगों के प्रलोभन भी तुम्हें,
किंचित न विचलित कर सकें, हम तत्व अधिकारी कहें।
धन लोभ में तो विश्व के जन बद्ध, पर तुम मुक्त हो
नचिकेता अधिकारी तुम्हीं, शुचि दिव्य निःस्पृह भक्त हो॥ [ ३ ]

दूरमेते विपरीत विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥४॥

विख्यात दो साधन प्रमुख, विद्या - अविद्या नाम से,
एक भोगों से सलग, और एक प्रेरित ज्ञान से।
नचिकेता प्रिय विद्या का में, अभिलाषी तुमको मानता,
अविचल तितिक्षामय विवेकी, आत्मज्ञान प्रधानता॥ [ ४ ]

अविद्यायामन्तरे वर्तमानः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥५॥

अन्तर अविद्या वास फिर जो स्वयं को ज्ञानी कहे ,
ज्ञानाभिमानी मूढ़ भोगी, विविध योनी में रहे।
अंधे को अंधा मार्ग दर्शक , ठीक गति उनकी वही,
बहु योनियों की दुखद भटकन, लक्ष्य क्या मिलता कहीं॥ [ ५ ]

न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ।। ६।।

भौतिक प्रमादी मूढ़ जो, धन मोह में मदमत्त हैं,
परलोक की चिंता नहीं, अदृश्य उनको सत्य हैं।
भौतिक क्षणिक सुख मान शाश्वत, भ्रमित हो हँसते रहे,
पुनरपि जनम और मरण के, दुष्चक्र में फँसते रहे॥ [ ६ ]

श्रवणायापि बहुरभिर्यो न लक्ष्यः श्रृण्वन्तोपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ।। ७ ।।

अधिकांश को तो आत्म तत्व का श्रवण भी नहीं साध्य है,
कुछ श्रवण करते फिर भी उनका, ग्रहण तत्व दुसाद्धय है॥
विरला ही कोई यथार्थ ज्ञाता, विरला ही कोई गहे,
ऋत आत्म तत्व के ज्ञान का, ज्ञाता परम दुर्लभ महे॥ [ ७ ]