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प्रथम अध्याय / प्रथम वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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ॐ अशन् ह वै वाजश्रवस: सर्ववेदसं ददौ ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥१॥

ॐ नाम से उपनिषद शुचि आदि हो स्वस्तिमयी,
वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक का यज्ञ मंगलमयी।
नचिकेता नाम का पुत्र उनका लीन था सर्वज्ञ में,
धन दान में सब दे दिया था, विश्वजीत इस यज्ञ में॥ [ १ ]

तं ह कुमारं सन्तं दक्षिणासु नीयमानसु श्रद्धा आविवेश सोऽमन्यत ॥२॥

उपरांत यज्ञ के ब्राह्मणों को, दक्षिण के रूप में,
गौएँ जो दी जानी थी, सब थी जीर्ण शीर्ण स्वरूप में।
नचिकेता बालक था अपितु, आवेश में कुछ कुछ कहा,
क्या दान योग्य है जीर्ण गौएँ, शेष इनमें क्या रहा॥ [ २ ]

पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रिया: ।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत् ॥३॥

ये दुग्ध हीन निरिन्द्रियाँ, गौएँ तो मरणासन्न हैं,
यह दान व्यर्थ है, पिता मेरे, इतने कैसे प्रसन्न हैं?
जो भी निरर्थक वस्तुएं हों, दान उनका व्यर्थ है,
जो प्रेय श्रेय को दे सके, उस दान का ही अर्थ है॥ [ ३ ]

स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यतीति ।
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति॥४॥

इन अर्थों में, अति परम प्रिय धन, तात का मैं पुत्र हूँ,
मुझे आप किसको दे रहे कृपया कहें, मैं व्यग्र हूँ।
पुनि प्रश्न था, पुनि मौन था, पुनि प्रश्न उत्तर शेष था,
तुझे मृत्यु को देता हूँ, ऋषि को, क्रोधमय आवेश था॥ [ ४ ]

बहूनामेमि प्रथमों बहूनामेमि मध्यम:।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति ॥५॥

शिष्यों, पुत्रों की तीन श्रेणी, श्रेष्ठ तो कहीं मध्यमा,
कदापि मैं नहीं अधम हूँ , क्यों कुपित तात हैं दें क्षमा।
यमराज को क्यों तात मुझको, दे रहे क्या मर्म है,
अब दुखित भी अति लग रहे, करूं शांत मेरा धर्म है॥ [ ५ ]

अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे ।
सस्यमिव मर्त्य: पच्यते सस्यमिवाजायते पुन: ॥६॥

हे तात ! आपके पूर्वजों ने आचरण, जो भी किया,
वर्तमान को श्रेष्ठ लोगों ने अभी जैसे जिया।
करिये यथावत आचरण, ऋत, मरण धर्मा प्राण हैं,
अन्न सम प्राणों की वृति इव, जन्म जीर्ण विधान है॥ [ ६ ]

वैश्वानर: प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणों गृहान् ।
तस्यैतां शान्ति कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम् ॥७॥

नचिकेता पहुंचे यमसदन, ब्राह्मण अतिथि के रूप में,
आतिथ्य रवि सुत ने किया, अर्ध्य पाद्य स्वरूप में
किया पाद्य- प्रक्षालन विनत हो, धर्मराज ने विप्र का,
वर तीन देने को कहा त्रैदिन प्रतीक्षा रूप में [ ७ ]

आशा प्रतीक्षे संगतं सूनृतां च इष्टापूर्ते पुत्रपशूंश्च सर्वान् ।
एतद् वृड्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥८॥

भोजन बिना ब्राह्मण अतिथि, घर में रहे जिसके कभी,
शुभ दान, यज्ञ व पुण्य कर्मों के फलित फल क्षय हों सभी।
पूर्व पुण्य से प्राप्त सुत -पशु, वाणी का माधुर्य भी,
श्री हीन क्षीण हो अतिथि जिसके, घर रहे भूखा कभी॥ [ ८ ]

तिस्त्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे अनश्नन् ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्य : ।
नमस्ते अस्तु ब्रह्मन् स्वस्ति में अस्तु तस्मात् प्रति त्रीन् बरान् वृणीष्व ॥९॥

श्रद्धेय विप्र हे देवता. मम अतिथि आप प्रणम्य हो,
मेरे प्रमाद से तीन रातों का कष्ट विप्र हे क्षम्य हो।
भोजन बिना ही आप घर पर तीन रातों तक रहे,
अब तीन वर देता हूँ मैं संकोच बिन कुछ भी कहे॥ [ ९ ]

शान्तसकल्प: सुमना यथा स्याद्वीतमन्युगौर्तमों माभि मृत्यो ।
त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे ॥१०॥

वापस यहाँ से जाऊं मैं तो, पूर्ववत मेरे पिता,
क्रोध क्षोभ से रहित शांत हों, मुदित मन आनंदिता।
स्नेहाविकल होकर कहें, मम पुत्र नचिकेता यही,
तीनों वरों में मृत्यु देव हे ! प्रथम वर इच्छित यही॥ [ १० ]

यथा पुरस्ताद् भविता प्रतीत औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्ट : ।
सुखं रात्री: शयिता वीतमन्युस्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ॥११॥

धर्मराज ने कह तथास्तु विप्र वर को वर दिया,
क्रोध दुःख, उद्विग्नता को शांत मैंने कर दिया।
तुम्हे मृत्यु मुख से मुक्त देख के हर्ष के अतिरेक से,
शांत चित वे सो सकेंगे, काम लेंगे विवेक से॥ [ ११ ]

स्वर्गे लोक न भयं किञ्चनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति ।
उभे तीर्त्वाशनायापिपासे शेकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१२॥

भय नहीं किंचित स्वर्ग लोके, जरावस्था भी नहीं,
भूख प्यास विकार तन के, व्याधि दुःख होते नहीं।
वहाँ मृत्यु रूप में आप भी करते नहीं भयभीत हैं ,
आनंद रस में निमग्न हो, वहाँ जीव सारे पुनीत हैं॥ [ १२ ]

स त्वमग्नि स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यों प्रब्रूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम ।
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण ॥१३॥

वह स्वर्ग, अग्नि लोक को जाने बिना मिलता नहीं
हे मृत्यु देवता ! आप सा नहीं अग्नि का ज्ञाता कहीं।
आप में और अग्नि विद्या में गहन श्रद्धा मेरी,
उपदेश उसका ही कीजिये वर दूसरा इच्छा मेरी॥ [ १३ ]

प्र ते ब्रवीमि तदु मे निवोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेत: प्रजानन् ।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम् ॥१४॥

नचिकेता प्रिय मैं अग्नि विद्या से, विधिवत विज्ञ हूँ,
ऋत मर्म कहता हूँ सुनो, वर देने को मैं प्रतिज्ञ हूँ।
है अग्नि विद्या अनंत इससे, लोक अविनाशी मिले,
बुद्धि रुपी गुफा में यह तात्विकों को ही मिले॥ [ १४ ]

लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीर्वा यथा वा ।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्यु: पुनरेवाह तुष्ट:॥१५॥

यमराज ने तब स्वर्ग कारण रूप अग्नि विद्या को
आद्यंत कर उपदेश पूछा कि ज्ञात्त क्या हुआ प्रज्ञा को।
कहाँ कैसी कितनी ईंटे अग्नि कुंड शुचि को अभिष्ट हैं,
नचिकेता ने सब यथावत कह दिया, जो उपदिष्ट है॥ [ १५ ]