प्रथम सर्ग (आत्ममंथन) / राष्ट्र-पुरुष / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'
शीश झुकाऊँ क्रीतदास-सा मैं जाकर दरबार में
इसके पहले आग लगा दूँ तरुणाई के ज्वार में
अपना देश, राज्य भी अपना
क्या सदोष यह साध है
अपना राष्ट्र, पताका अपनी
यह कोई अपराध है?
हम स्वदेश की उन्नति चाहें
चाहें पथ को मोड़ना
हम नूतन कार्य-क्रम चाहें
चाहंे क्रम नव जोड़ना
चाहे रहे हम अपनी भाषा
अपनी बोली बोलना
चाह रहे अपने गीतों में
हम अपने को खोलना
चाहे रहे हैं हम स्वतंत्रता
यही हमारा मंत्र है
सेवा का संकल्प, साधना
स्नेह हमारा तंत्र है
देश हमारा, हमें देश के
कण-कण से अनुराग है
हमें गर्व है, जन-मन में अब
लगी सुलगने आग है
दंडनीय उत्सर्ग-भाव क्यों
दंडनीय क्यों त्याग है
हम न जानते वर्जनीय क्यों
बलिवेदी का राग है
हमने जान लिया है अपने
स्वत्त्व, मूल अधिकार को
हृदयंगम कर लिया समय को
महिमामयी पुकार को
हमने जाकर निकट छुआ है
पृथ्वी के उच्छृवास को
हमने देखा अंधकार में
रोते हुए प्रकाश को
हमने देखा है कुम्हलाते
आशा को, उल्लास को
हमने देखा है मुरझाते
असमय मसृण विकास को
हमने देखा आगे बढ़ते
रक्त-पिपासु विनाश को
हमने रो-रोकर देखा है
हीन-वीर्य इतिहास को
हमने देखा गंध नहीं है
सुरभि नहीं है फूल में
हमने देखा स्वप्न पड़े हैं
ध्वस्त-नगर-सा धूल में
हम तो अपना घर सम्हालते
वही हमारा ध्यान है
फिर क्यां बीजापुर ने छेड़ा
यह कैसा आह्वान है
बीजापुर के प्रासादों पर
दीप-पंक्तियाँ सोहतीं
मध्यरात्रि की नीरवता में
विषयी-जन को मोहतीं
जो विलास की सुखद सेज पर
रस से सिक्त विभोर थे
जिनकी चारों तरफ घूर्णियाँ
लहरें, पवन-झकोर थे
कह्न टूटता था नित जिनका
निरवलंब निरुपाय पर
अवलंबित अस्तित्व दमन पर
अनाचार-अन्याय पर
जिनकी आँखों में मदिरा की
लाली लिपटी राग से
जिनकी साँसों पर मदान्धता
तिरती धुलकर आग से
जिनके हर विचार से शोले
झड़ते थे उत्पात के
वे थे बेसुध पड़े अंक में
मद्यस्नाता रात के
किंतु शिवा की आँखों से
निद्रा की छाया दूर थी
कारण, बीजापुर की छाया
बड़ी निठुर थी, क्रूर थी
हृदय नहीं था, न्याय नहीं था
सब कुछ उसके पास था
नीति नहीं थी, नियम नहीं था
रक्त-लिप्त इतिहास था
युवक शिवा के चिंतन में
सहसा आ गया उबाल-सा
लगा दीखने अंगारों से
जटित विमोहक ज्वाल-सा
”चाह रहा अन्याय रोक दे
नवयुग के तूफान को
चाह रहा दरबार तोड़ दे
तिनके-सा प्रणवान को
चाह रही हिंसा मरोड़ दे
नव-पल्लव-युत डाल को
चाह रही छेड़े न कहीं
कोई सत्ता के व्याल को
विष बढ़ता ही रहे चतुर्दिक
बीजापुर की चाह है
विष चढ़ता ही रहे, उसे
इसकी न तनिक परवाह है
बीजापुर का अर्थ, विदेशी
शासन का अभिशाप है
बीजापुर के कारण फैला
दुःख, शोक, संताप है
बीजापुर का अर्थ, विशोषण
उत्पीड़न का तंत्र है
बीजापुर तो एक भयानक
कपट-संधि का यंत्र है
शीश झुकाऊँ क्रीतदास-सा
मैं जाकर दरबार में
इसके पहले आग लगा दूँ
तरुणाई के ज्वार में
शीश झुकाना जीजाबाई के
पय का अपमान है
सिर ऊँचा रखना स्वदेश की
मर्यादा है, शान है“
दिन कढ़ा, किरण का वाद्य बजा
दिन चढ़ा, उधर दरबार सजा
पग बढ़ा शौर्य साकार चला
अनगढ़ा अजेय उभार चला
जय-तिलक भाल पर लाल लिये
दाहिने हाथ करवाल लिये
उष्णीष पहन अंगार चला
लगता था क्रांति-कुमार चला
पहुँचा जब राज-सभा में जा
पहले देखा कि वहाँ क्या-क्या
तब दृष्टि गई सिंहासन पर
फिर क्रूर दर्प के आनन पर
रह गई गड़ी निर्भीक वहाँ
जिस ठौर प्रश्न था, ठीक वहाँ
दृग उसे देखते थे शत-शत
कुछ क्रोध भरे, कुछ विस्मय-रत
इस समय किसी वरदानी ने
या जन्मभूमि के पानी ने
या भुवनेश्वरी भवानी ने
या मातु-मूर्त्ति कल्याणी ने
उसका तन-मन इस भाँति छुआ
वह अकस्मात आविष्ट हुआ
उसने यह अनुभव किया कि वह
है अस्थि-पुंज से भिन्न असह
भा-पुंज प्रखर जिसके खर-शर
उड़ रहे काल के पंखों पर
वह महाशक्ति का श्वास-पवन
जो है हलोरता भुवन-भुवन
वह ईशानी का तेज-ताप
सकता न जिसे दरबार नाप
वह व्यक्ति नहीं, संपूर्ण देश
पाया सहेतु मानवी वेश
वह नहीं स्वयं में बंद क्षुद्र
वह लहरों से मंडित समुद्र
है उसे प्राप्त झंझा का रथ
उसका है स्वतंत्रता का पथ
वह स्वर है जन-मत जन-बल का
सपना मानवता-मंगल का
सपना है जीजाबाई का
सपना है भाई-भाई का
सपना है बहनों का पावन
सपना स्वदेश का मन-भावन
वह सपना कलियों-फूलों का
कृषि-संकुल सुभग दुकूलों का
वह सपना पर्वत-शिखरों का
निर्झर-नदियों की लहरों का
वह सपना ताल-तलैया का
वह सपना कुटी-मड़ैया का
वह सपना करुणाशीलों का
सपना टेकड़ियों-टीलों का
वह आर्त जनों का सपना है
पर सीखा नहीं कलपना है
वह उनका, आँसू, जिनका है
वह आँधी स्वयं, न तिनका है
लपटों में पलनेवाला वह
काँटों पर चलनेवाला वह
हालाहल पीनेवाला वह
उन्नत शिर जीनेवाला वह
उसको है शपथ जवानी की
उस पर है बाँह भवानी की
उसको आदेश न झुकने का
उसको न समय है रुकने का
दरबार रह गया किंकर्तव्यविमूढ़ मौन
जो चला गया वह युवक शिवाजी या कि कौन?