प्रथम सोपान / देवाधिदेव / जनार्दन राय
राम चरित मानस के मूल रचयिता शंकर,
तब विराट व्यक्तित्व चेतना का है निर्झर।
काव्यमयी भाषा में जो व्यंग्य सृष्टि पर,
बिखराता जो हास्य व्यंग्य एक साथ मनुज पर।
सुरतिय मुस्कायी जिसके सरुप को लखकर,
बोली दुलहिन नहीं कहीं दुलहा जस भू पर।
है विनोद का साधन जितना उतना ही भय का भी,
सुरतिय को अह्लाद हुआ मैना को भय भी।
स्वर्णथाल स्वागत का भी जो रख न सकी निजकर में,
कुछ क्षण पहले हँसने वाली भाग छिपी निज घर में।
मैना चली आरती करने हुलसित शिवशंकर की,
मंगल कविता गान कर रही थी वाणी नारी की।
स्वर्णथाल पावन परिपूरण ले परिछन हित मैना,
चली जहाँ सोल्लास वहीं थी थिर न रह सकी नैना।
विकट भेष शंकर का लख कर अवला हो भय भीत,
भाग भवन बैठी जाकर था उर भय आशातीत।
फिर महेश का कहना क्या था लौट गये जन वासा,
बाराती थे मौन, बन गया दृश्य गजब था खासा।
हास्य और भय के स्रष्टा तुम मानव की आँखों में,
बने विरोधाभास पुंज तुम लखते जन मानस में।
श्मसान-वासी, निवस्त्र अवधूत सदृश लगते हो,
पार्वती को गोद लिये उल्लास मग्न रहते हो।
भिक्षा-पात्र लिये हाथों में याचक बन जाते हो,
याचक को सामने निरख सर्वस्व लुटा पाते हो।
उद्घोषित करते उदार स्वर में न तनिक तुम मांगो,
मुँह माँगा देते दानी वावरा बने नित नांगो।
समष्टि चेतना के प्रतिनिधि, देवाधि देव सर्वेश,
कहलाने के अधिकारी केवल तुम ही अखिलेश।
समझ सकेगा वही चरित यह भव्य विराट विशाल,
बुद्धि विबेक विनय युत होगा जो धरती का लाल।
सामाजिक मर्यादा की धारणा बहुत सीमित है,
श्रेष्ठ कनिष्ठ बना देने का ढंग गलत जीवित है।
सुदृढ़ सुरक्षाहित समाज प्राचीर बना लेता है,
सरक्षित परिवार बनाने भवन बना लेता है।
गृहपति निज को जान गर्व का अनुभव नर करता है,
सज धज कर सौन्दर्यकला लख आनन्दित रहता है।
बना बड़ा प्राचीन विशाल पृथ्वी में सीमा का,
सृजन वही करता विनष्ट कर प्राचीरें औरों का।
बड़ा विजता बनकर जब वह गर्वीला बन जाता,
राग-द्वेष के बीच शान्ति - सुख हत्यारा हो जाता।
ऊपर से सुन्दर समृद्ध बन भीतर का अवमूल्यन,
देख नहीं पाता उसकी नादानी का अन्धापन।
शंकर ऐसी सामाजिक मर्यादा को ठुकराता,
और अखण्ड सत्य का जग को दिव्य रूप दिखलाता।
प्राचीरें, गृह वस्त्र व्यक्ति की बहुत बड़ी मजबूरी,
साधन नहीं गर्व के, ये हैं ब्रह्म-जीव की दूरी।
अनिकेत रुप शिव का जन का अविवेक दूर करता है,
आग्रह में आसक्त व्यक्ति शिब को न समझ सकता है।
दक्ष चित्ररथ और भृगु ऐसे ही मानव थे,
शिव निन्दक और विष्णु-प्रशंसक बन जग में जीते थे।
‘राम चरित मानस न,
किन्तु इसको माना है।
शंकर विष्णु समान
पूज्य उसने जाना है॥
स्वयं राम ने इष्टमान
शिव को पूजा है।
मर्यादा रक्षक, पालक
शिव सा न कोई दूजा है॥
मुक्ति दान देने वाले
शंकर माने जाते हैं।
और दान देने वाले
अधिकारी कहलाते हैं॥
भ्रान्त मनुज शिव को न समझ
मान्यता स्वयं गढ़ता है।
जो कुछ वह है नहीं
स्वयं में आरोपित करता है॥
ऐसा करना उसके दुख
का कारण बन जाता है।
ईश्वर - अंश जीव आशंका
ग्रसित छला जाता है॥
जाति वंश की बनी धारणा,
उसकी सही नहीं है।
महानता का माप दण्ड
पाता वह कहीं नहीं है॥
शिव झूठी मान्यता कभी
स्वीकार नहीं करते हैं।
जीवन-दर्शन उनके नित
प्रहार उन पर करते हैं॥
उसके जो व्यवहार वेष-भूसा
इतनी बल शाली।
झकझोड़ती सदा नर को
शास्वत सत्य दिखाने वाली॥
श्मसान वासी शिव को,
मरने से डरने वाला।
देख चौंकता पूजन पाता,
भ्रांत समझने वाला॥
श्मसान के प्रति पवित्र,
भावना नहीं वह रखता।
उपासना के योग्य इसी से,
शंकर को न समझता॥
तमोमुणी वे देव सदा
रह चिता भस्म से भूषित।
करने रहते जन मानस को
सदा ज्ञान आलोकित॥
मिट्टी से निकला चन्दन है,
पवित्रता का द्योतक।
चिता राख मिट्टी में मिल
क्यों अपवित्रता-बोधक?
राख विभूति रुप में परिणत
है आनन्द लुटाती।
मंगल की जननी बन,
खुशियाँ रहती सदा लुटाती॥
”सुकृति शंभुतन विमल विभूती
मंजुल मोद प्रसूती“ है।
चिता भस्म से भूषित काया,
ज्ञान-रश्मि की दूती है॥
रखता भेष विचित्र
विलक्षण सत्य दिखाता रहता।
क्रिया कलाप हमेशा उसका
ज्ञान दिलाता रहता॥
जितना उर विशाल उनका
अन्तर उतना कोमल है।
नंग धरंग भले दीखे
परतन, मन अति निर्मल है॥
अन्तर उसका कितना पावन
चलें देखने वन में।
परमेश्वर श्री राम राजते
प्रतिक्षण उसके मन में॥
प्रियाहीन रुदन करते वे
भटक रहे थे वन में।
”जय सच्चिदानन्द“ कह
शिवजी विहंस रहे थे मन में॥
सती समेत जा रहे हरिहर
थे सुन कथा महा पावन।
अन्तर में पुलकित होते थे
अश्रुपूर्ण लखकर आनन॥
देखा जो यह दृश्य सती ने
उर में संशय जन्म ले लिया।
पिता दक्ष के संस्कार से,
दुख के पथ पर चरण रख लिया॥
शंकर की वन्दना जगत
करता, वे हैं जगदीश।
सुरनर मुनि जिनके
चरणों में सदा नवाते शीश॥
ऐसे ईश्वर ने कैसे
नृप सुत को किया प्रणाम।
सम्बोधन करते बोले,
सच्चिदानन्द पर धाम॥
मगन सतत होते गये, रुकी न पलभर प्रीत।
निज प्रभु के सौन्दर्य लख, गाते सुख के गीत॥
ब्रह्म विरज व्यापक अनीह हैं, वे हैं अकल अभेद।
देह नहीं धर बन सकते नर, जिन्हें न जाना वेद॥
यह संशय शिव-प्रिया
हृदय में चक्कर काट रहा था।
करते रहे प्रयास सदा शिव,
मिटा नहीं संशय था॥
यद्यपि असफल हुए शंभु
पर असहिष्णुता थी मन में।
क्रोध नहीं कुछ किये सती पर
करुणा जो थी तन में॥
तत्क्षण ही आदेश दिया
यदि संशय मिटा न तेरा
जाकर अभी परीक्षा लेलो
मान कहा अब मेरा।
तब तक मैं बटतर बैठूंगा,
जब तक तुम लौटोगी।
भ्रम उरका अविलम्ब
मिटाकर वापस तुम आओगी॥
”जैसे जाय मोह भ्रमभारी“
वैसा ही करना तुय,
यत्न विवेक विचार पूर्ण हो,
ध्यान सदा रखना तुम॥
बुद्धि न उसकी थिर रहती थी,
क्या करती बेचारी।
सीता का ही रूप धर लिया,
बनकर स्वेच्छा चारी॥
जिसको पति पूजता और
रखता डर आठो याम।
उसी ब्रह्म को छलने जाने
का था कुत्सित काम॥
नजर पड़ी प्रभु की
झट से माँ कहकर किया प्रणाम।
पूछा कुशल शम्भू का
कहकर पिता सहित निजनाम॥
चौंक पड़ी वह छलना मयी
कुछ चली न उसकी चाल।
बनती जाती प्रति क्षण थी,
असहाय बहुत बेहाल॥
पूछा रघु पुंगन ने,
संशयवन में है क्या काम?
फिरना यहाँ अकेली कितना
साहस का है काम?
फिरती यहाँ अकेली है तज कहाँ कहाँ भूत भावन को,
भटक रही है छोड़ कहा दुविधा में मन भावन को?
उत्तर क्या देती लौटी थे शम्भु जहाँ वट-तर में,
विफल मनोरथ की जलती थी ज्वाला उर अन्तर में॥
झूठ बोलना पड़ा उसे, ‘कुछ लीन परीक्षा उनकी’,
आप सदृश कर के प्रणाम खोई मलिनता मनकी।
झूठा रूप दिखाकर आई एक महा प्रभु को थी,
झूठी बात सुनाती जाती अपर महा प्रभु को थी।
एक पाप पर परदा करने करती थी बहु पाप,
होती जाती थी अनियंत्रित अपने ही वह आप।
था न असम्भव असत्यता लख पाना शिव शंकर से,
जो सर्वज्ञ सदा शिव कैसे कुछ छिप सकता उनसे॥
क्रोध दिखाना, भुझलाना स्वाभाविक था शंकर का,
किन्तु वहाँ औदार्य प्रगट था सहज शील शंकर का।
अन्तर्व्यथा न प्रगट हो रही थी जो शंकर में,
हरि माया का फल था नहीं था दोष सती के तन में॥
देखा धर कर ध्यान प्रभु का सती चरित सब जाना,
सबके पीछे नादय हरिका ही शंकर ने माना।
फिर हरि की माया को ही नमन किया शंकर ने,
प्रेरित कर उस महा सती से झूठ कहाया जिसने।
दोष मुक्त कर दिया सती को,
फिर भी थी आकुलता।
सीता का धर रूप सती ने
लादी थी व्याकुलता॥
स्वीकृत करना प्रिया रूप में
थी विरुद्ध मर्यादा।
अन्तर्द्वन्द्व व्यथित करता था
शंकर को अब ज्यादा।
परम पुनीत सतीन त्याज्य थी,
प्रेम वहाँ था पाप।
प्रगट न कुछ कहते महेश थे,
हृदय भरा था ताप।
शंकर अन्तर्द्वन्द्व न बहुतों को
होता हृदयंगम।
इसीलिए उनके उर में
नर कर सकता नहीं संगम॥
नाट्य मंच पर उनका अभिनय
समझ न पाता मानव।
करता हैं सत्संग किन्तु
रह जाता ही है दानव॥
विवेक ही क्या समझे करना
सती वेष परिवर्त्तन।
जिन के उर में दोष
रहता है जहाँ असंभव॥
सगुण रूप की पूजा करना,
भाव-राज्य में संभव।
बौद्धिक तर्कों का प्रभाव
रहता है जहाँ असम्भव॥
व्यापक ब्रह्म व्यक्ति बनता,
स्वीकार नहीं इस जन को।
समझाता केवल तर्कों से
जो है अपने मन को॥
शिव न वहाँ भगवत्ता में
स्थित हो कुछ थे करते।
भावुक भक्त भूमिका केवल
वे प्रस्तुत थे करते॥
उनके भाव राज्य में सीता
जी थी मातृ स्वरूपा।
होता था रस भंग सती को
लख सीता अनुरूपा॥
देख सती को राम-जानकी
साथ दिखाई पड़ते।
शृंगारिक सम्बन्ध सती से
फिर वे कैसे करते?
पर जीवन व्यतीत करने हित
निश्चय कुछ करना था।
पाने हित संकेत ध्यान
प्रभु का ही तो करना था।
तब शंकर ने प्रभुपदनत आराध्य राम का ध्यान किया था।
सुमिरन करते प्रभु ने उनके उर में ज्ञान दिया था॥
इस तन में सती से मिलने का शेष न रहा विकल्प।
मन ही मन सर्वेश्वर शिव ने कर डाला संकल्प॥
परित्याग भी असाधारण शंकर था अनुपम।
वर्हित्याग आनन्द दिलाने कथा चल रही निरूपम॥
वार्त्तालाप सुखद चलता था, कथा मोद पूरित थी।
केवल प्रिया रूप में स्वीकृत सती नहीं होती थी॥
साधक त्याज्य वस्तु को इन्द्रिय निकट नहीं लाता है।
देख कुपथ्य रोगी का संयम खो जाता है॥
सती समीप किन्तु रह शंकर-हृदय विकार रहित था।
वर्षों का विलासमय जीवन उत्सर्गित जनहित था॥
बिस्मृत था शृंगारिक जीवन आत्मा पर संयम था।
कितना था कठोर व्रत कितना प्रशंसनीय नियम था॥
यात्रा थी चल रही शम्भू की,
सती साथ निज घर की।
गगन गिरा कानों में
गूंजी मति थिर थी शंकर की।
जयशंकर का घोष हुआ,
जिसने निज भगति दृढ़ाई।
अनुपम था संकल्प ले लिया,
भूल प्रिया की प्रीति रुलाई।
पर धरती पर कौन वहां,
जो प्रण कर सकता था।
राम भक्त शंकर केवल
व्रत ऐसा धर सकता था॥
अनुपमेय कोमलता थी,
वैराग्य-त्याग क्षण में भी।
धैर्य अमित था, ध्यान अडिग था,
उस संकट - पल में भी॥
गगन-गिरा में ध्वनित प्रशंसा, शिव महिमा सामर्थ्य पूर्णथी।
सुन जिसको सती उर की शंका संशययुत सन्देह पूर्ण थी॥
उसके तन, उर, मन में चिन्ता मचा रही अतुलित हलचल थी।
क्या करती सवला अबला बन सहती व्यथा दुखी पल-पल थी॥
था उर में संकोच पुनः बोली कैसा प्रण किया कृपालू।
कहें हमें भी सत्य धाम प्रभु मेरे दीन दयालू॥
दिया वहां भी शिव ने अपनी आत्मा के संयम का परिचय।
लख कर वैसा विमल विलक्षण कहते थे सब शिब की जय जय॥
स्वयं झूठ कहने वाली भी सत्य धाम शिव से बोली थी।
सत्य कहें वे छिपान रखें ऐसी आशा मन चाही थी॥
रहे पर मौन शिव व्रतके,
विषय में कुछन बोले।
सिन्धु थे शील के संकल्प से,
कण भर न डोले॥
सत्य है शील से जो,
हीन वह अभिमान देता।
सत्य जो शील से है युक्त,
सदा सम्मान देता॥
धर्म-रथ के हैं सौरज
और धीरज ही तो चाका।
सत्य औ शील हैं दृढ़
ध्वज उसी की तो पताका॥
प्रति पक्ष उनको जब
गिरा कर तोड़ देता।
अरिदल का मनोबल
बस वहीं वह मोर देता॥
कठिन है व्रत निभाना
साथ शील और सत्य रक्षित।
बिना उसके कभी
योद्धा नहीं रहते सुरक्षित॥
वहुधा त्याग देते सत्य को
जो शील वादी।
करते आचरण वैसा ही
जो व्यवहार वादी॥
अनेक पात्र ‘मानस’ के
भी हैं स्वीकार करते।
दो में एक ही सार्थक
सदा स्वीकार करते॥
बने अपवाद ‘मानस’ के हैं
हैं दो भगवान उसके’
श्री राम शिव शंकर हैं
पावन नाम जिनके॥
करती रही बारम्बार,
प्रश्न सती भवानी।
निरन्तर मौन थे शंकर
सहज मन से अमानी॥
समन्वय शील सच का था
बड़ा पावन निराला।
हो रहा था विलक्षण ढंग से
अधका दिवाला।
थी पूछती बहु भाँति
विह्वल रहकर पति से।
रहे थे मौन आराती वहाँ
उस क्षण जती से।
त्रिपुर था स्वर्ण, चान्दी
और लोहा से विनिर्मित।
त्रिपुरा सुर कामान्ध
रहता था अपरिमित॥
एकही वाण शंकर का
मिटाया था त्रिपुर को।
समय भी एक ही था
मिटाने को त्रिपुर को॥
व्रतशील सत्य सदा
सुरक्षित मौन से थे।
अटल व्रत रह सके,
इससे अधिक कोई न सुर थे॥
निष्ठुरता, असत्यता,
आत्म प्रशंसा ही तो त्रिपुर।
त्रिपुरारी मौनास्त्र ही ने,
था मिटाया वह त्रिपुर॥
अवगत वन अपराध,
सती अब तो गलानि गरती थी।
दूरी शिव की निज सेलख,
वह जीवित ही मरती थी॥
फिर भी तन का कोना-कोना
भीग रहा था।
शिव का ही औदार्य जो,
उर को सीच रहा था॥
त्यागे थे उसको,
पर उसको दण्ड नहीं देते थे।
बचा रहे उसको ग्लानि से,
थे खुद ही दुख ले लेते॥
सती ने भी समझ लिया, क्यों हुए शंभू थे मौन
उदारता हिय की विशालता दिखाला सकते कौन?
सती ने अनुमान किया सब जान गये सर्वज्ञ।
कपट किया जो शंभू से बन नारि सहज जड़ अज्ञ।
करनी समझ सती अपनी थी, चिन्तित बनती जाती।
कृपा सिन्धू शिव की अगाधता प्रतिक्षण मन पर छाती॥
शिव की उदारता और शील था प्रतिपल बढ़ता रहता।
पीड़ा घटे सती की इससे कथा कहानी कहता॥