प्रबोध पर्व / अमरेंद्र
हृदय अब भी उदासी से भरा-सा कर्ण का है,
गगन से चोट खाकर चाँद धरती पर गिरा है;
विभा से फूटती है कालिमा-कालिख, उजागर,
बहुत गुमशुम, विरल नद-सा दिखाता सिंधु सागर।
खिला हो पुष्प जिसमें हो नहीं मकरन्द सौरभ,
नहीं हटते हैं पांडव और न तो मन से कौरव।
गिरा गंभीर नारी का, ' प्रकट यह देववंशी,
यही कल भूप होगा अंग का यह राजवंशी। '
" उठी थी कौन मेरे पक्ष में लेकर गवाही,
भले ही जम रही थी कौरवों की वाहवाही?
ये कैसा खेल है जिसका यहाँ मैं ही खिलौना?
फँसा है झाड़ियों के बीच मृग का एक छौना!
" भला क्या चाहती है नियति मुझसे, मुझसे केवल,
छिपा बैठा है भीतर भाग्य मेरा, ठोक सांकल"
बहुत बेचैन होकर उठ पड़ा राधेय गुमसुम,
उधर अरुणिम गगन पर बह रहा है रक्त कुमकुम।
चला आया सँभाले मन को वह गंगा किनारे,
विगत की भग्न, मैली, श्याम सुधियों के सहारे;
कहा गंगा से, " बोलो माँ, मेरी जीवनकथा क्या?
नहीं यह साथ छोड़ेगी कभी डायन व्यथा क्या?
" मिला मंदार पर था कुछ मुझे संकेत झिलमिल,
वही फिर हस्तिपुर में हो गया था कैसे शामिल?
मेरी खुशियाँ व्यथा की बन गई हैं क्यों सहेली?
बताना आज होगा, माँ, तुम्हें क्या है पहेली। "
मुँदी आँखें, जुड़े कर भी, बनी है देह पत्थर,
कि जैसे जम गया हो कुछ पलों को सिंधु सागर।
खुली आँखें तो सम्मुख रश्मियों का ही पुरुष था,
नहीं कोई कहीं था क्षोभ मुख पर, बहुत खुश था।
झुका चरणों पर था भूमिष्ठ ऐसे कर्ण पुलकित,
हृदय के भाव सारे हो रहे हैं स्वयं लक्षित।
लगाया वक्ष से वसुषेन को तत्क्षण उठाकर,
शिला के एक उज्ज्वल खंड पर उसको बिठा कर।
लगे कहने किरण के देवता हर इक कथा को,
रखे मन में, नयन में, बोल में सम्मुख पृथा को;
" सुनो वसुषेन, उस दिन रंगशाला में सुना जो,
तुम्हारी माँ पृथा थी, झूठ कुछ न था, हुआ जो।
" उसे बस जान पाया जो किसी ने, एक ही था,
सुयोधन था, विजय का, हारकर भी, अर्क पीता;
सभी तो जीत में या हार में खोए हुए थे,
भले ही जागते हो पर सभी सोए हुए थे।
" तुम्हारा रंगशाला में अचानक आ पहुँचना,
बिगड़ कर रह गई थी द्रोण की ही व्यूह-रचना।
नहीं उनको पता था कि तुम्हें न्योता मिला है,
सुयोधन को नए ही रूप में जेता मिला है।
" विजय वह चाहता है पृथ्वी पर, राज करना,
किया उपकार, जो मुश्किल बहुत ऋण से उबरना।
सुनो, वसुषेन, जो भी घट रहा, जो भी घटेगा,
उसी के वेग से छाया हुआ कुहरा छटेगा।
" तुम्हें क्या ज्ञात वर्णावर्त्त में, जो कि यहाँ पर,
पृथा ठहरी थी लाखावास में अब तक जहाँँँ पर;
उसी की कामना थी ब्याह होने तक रहेगी,
लिखा है भाग्य में जो, क्या हुआ, उसको सहेगी।
" स्वयंवर देखना वह चाहती थी भानुमति की,
सुकन्या सुन्दरी भगदत्त की, ज्योतिप्रभा की।
पृथा यह जानती थी सुन्दरी किसको मिलेगी,
कमलनी स्वर्ग की यह किस सरोवर में खिलेगी।
" तभी तो पांडवों को दूर ही रक्खा यहाँ से,
सभी कुछ ज्ञात होना था सहज क्षण में जहाँ से।
सुता भग्दत्त की कन्या कनिष्ठा बस तुम्हारी,
मुदा क्या भानुमति का दोष था, रहती कुँवारी।
" मुझे जिस बात की शंका थी, जिसका डर लगा था,
समय से सिद्ध है वह, जो लगा कुछ अन्यथा था;
हुआ वैसा ही, तुमने जीतकर भी भानुमति को,
उसे सौंपा सुयोधन को असुरµकर में ही रति को।
" नहीं तो क्या ये संभव था सुयोधन से कभी भी?
कहाँ लगती पुरानी है विगत बातें अभी भी।
लिया था रार तुमसे जब मगध के उस कुँवर ने,
स्वयंवर को ग्रसा हो क्रुद्ध राहु-कोप-डर ने।
" सुदर्शनचक्र पौरुष, तब तुम्हारा जग गया था,
तुम्हारा तेज अनजाने ही मुझसे लग गया था;
गिरा गिरि-सा जरासुत तो कहाँ फिर डोल पाया,
नहीं फिर मुँह, न बाँहों को दुबारा खोल पाया।
" बहुत दुख है, तुम्हारी माँ पृथा न देख पाई,
तुम्हारी जीत की छिटकी हुई नभ में जुन्हाई.
न जाने अब कहाँ होगी वह गंगा पार कर के,
सुयोधन को मिला क्या लाह का घर क्षार करके?
" भला वह क्या समझता था कि पांडव जल मरेंगे,
बड़े निश्चिन्त होकर श्राद्ध पाँचों का करेंगे?
उसे यह ज्ञात ही न था कि जिनकी माँँँ पृथा है,
उन्हें तब मारने का छल-कपट से ही वृथा है।
" समझना पांडवों को दीन, भारी भूल होगी,
वही कल भूप होगा आज वन-वन जो वियोगी;
लगा तो काल का टीका सुयोधन-भाल पर है,
तभी विपरीत मति-चिन्ता, नियति की चाल पर है।
" उसे अब देवता चाहे बचाना, तो असंभव,
जिसे कर में लिए ही मुस्कुराता काल भैरव;
सुनो वसुषेन, मेरे पुत्रा वयकर्तन, सुनाऊँ,
कहीं सब कुछ सुनाने में इसे न भूल जाऊँ।
" तुम्हारा मन सुयोधन के लिए जितना तरल है,
कहाँ तुमको पता इसका लगेगा, यह गरल है;
तुम्हें वह चाहता है इसलिए कि चाह कुछ है,
अलग है राह उसकी, जब तुम्हारी राह कुछ है।
" भरम ये हो रहा तुमको, तुम्हारा मित्रा है वह,
भयानक स्वप्न का चलता हुआ-सा चित्रा है वह।
जला कर लाह के घर को जलाया भाग्य अपना,
पकड़ता फिर रहा है व्योम का वह कौन सपना।
" उसे मालूम क्या है, पांडवों के साथ केशव
वहाँ क्या प्रेत कर लेगा, जहाँ पर काल भैरव?
सुनो वसुषेन, उससे कुछ नहीं अभिभूत होना,
अरे, इससे तो बढ़ कर श्रेष्ठ है वह सूत होना!
" नहीं कुछ भी करेंगे कृष्ण, सब कुछ घट चलेगा,
पवन जैसे उठेगा व्योम-बादल छट चलेगा;
इसीसे कह रहा हूँ, धर्म के ही साथ रहना,
किसी भी हाल में रहना, नहीं अनुदात्त रहना।
" यथा ज्यों तात तेरे अंग के हैं विश्वजेता,
धरा पर धर्म से ही राज्य के हामी, प्रणेता;
जिन्होंने पूर्वजों के मान को जोगा, सँभाला,
नहीं होने दिया है आज तक धूसर या काला।
" अनुज हैं विश्वजेता के ही, छोटी माँ के अधिरथ,
बढ़ाए जा रहे कुल-वंश का सम्मान अविरत;
तुम्हें तो और ऊपर उठ के चलना है यहाँ से,
बहुत आसान है चढ़ना अमरगृह तक जहाँ से।
" तुम्हारे तात तो हैं विश्वजेता चित्तजेता,
इसीसे पुण्य लेकर अंग में आसीन त्रोता।
पिता अधिरथ के कहने पर किया जो, ठीक ही था,
मिली है सारथी कन्या सुशीला तो पुनीता।
" भले ही पुन्नु आई अंग हो, सन्तान भी क्या?
सभी तो हस्तिपुर में हैं; यहाँ है अंग फीका।
कभी मत सोचना वे चम्प के वासी बनेंगे,
रहे हैं हस्तिपुर में तो वही के सब रहेंगे।
" उन्हें माता-पिता तो भा सकेंगे बहुत मन से,
नहीं पर अंग की माटी, सलिल, नभ या पवन से।
उन्हें तो राजवैभव का मिला सुख है, उसी के,
कभी क्या भूमि अपनी भा सकेगी जो किसी के?
" अयस है जो मनुज तो धन है चुम्बक का ही पर्वत,
कहाँ फिर मिट्टी का सौरभ हवन का हविश-अक्षत!
कभी क्या खींच पाता घर है अपने मोह-बल से?
अगर कुछ जग गया, तो है उड़ाता लोभ छल से।
" पराई भूमि की माया से जिसका मन बँधा हो,
उसे स्वदेश बाँधेगा कभी, उम्मीद क्यों हो!
इसीसे कह रहा हूँ, तुम वृषाली को वरोगे,
तुम्हारे तात का आदेश जो है, वह करोगे।
" नहीं बस विश्वजेता की, यही चाहे भी अधिरथ,
कहा क्या, हो रहे हो इस तरह से श्वेद लथपथ?
प्रजा के शांति-सुख से भूप का जीवन बड़ा क्या?
कहो क्या लोकहित में राज्य न होता खड़ा क्या?
" तुम्हारे अंश से ही देश यह रक्षित रहेगा,
कभी कोई किसी भी दाह में यह न दहेगा।
" यहाँ पर कौन है कुल-वंश का, जो वंशधारक,
कभी इस पर विचारा है अलग से भी, विचारक?
" नहीं तुम जानते हो, कौन है भगदत्त भूपति,
वृषाली मोहनिद्रा-सी उसी की तो है संतति।
पिता का ओज भी है, शील भी है; शुभ रहेगा,
तुम्हें जो कह रहा हूँ मैं, नहीं कोई कहेगा।
" इसीका पुत्रा होगा अंग का सम्राट भावी,
सुयशµगोदावरी से चीर, पद्मा, सिंधु, रावी;
मलय की गंध से सुरभित बहेगा भुवन भर में,
उसी की बात होगी लोक में, ऊपर अमर में।
" बचे कुछ और दिन हैं, वत्स का अभिषेक होगा,
धरा पर क्या, गगन में, हर्ष का अतिरेक होगा।
उसी दिन राजरानी से सजेगा भी सिंहासन,
तुम्हारे हाथ में जैसे ही होगा अंगशासन।
" बड़ा ही भक्त है भगदत्त शिव का, जिसकी कन्या,
धरा पर रूप धारे ऐसी ही है वह अनन्या;
वही होगी तुम्हारे साथ, तुमको वर लिया है,
तुम्हारे चित्त कोे भी जिसने पहले हर लिया है।
" कदाचित उस समय होेे माँ तुम्हारी घोर वन में,
भटकती तारिका-सी नीलकंठी धुर गगन में।
रहे वह जिस अवस्था में, रहेगा स्नेह तुम पर,
जगत में ख्यात, माँ का प्यार; ऊपर नील अंबर।
" सुनो वसुषेन, शंका के घिरे बादल हटाओ,
तुम्हें मैं वक्ष से अपने लगा लूँ, पास आओ! "
लगाया वक्ष से जैसे, लगा था कर्ण को यह,
हुआ हो भोर गंगा-तीर पर, चिड़ियों का चहचह।
पुलक से भर गया था वह पिता का स्नेह पाकर,
ये कैसा हो गया था व्योम में तमहर उजागर;
मुदा जैसे गये थे तात, शंका आ घिरी थी,
मनस से आ लगी थी, जो बहुत ही बावरी-थी;
" मुझे क्यों दे गए हैं तात यह आदेश ऐसा?
उन्हें क्या मित्राता में दोष दिखता शेष ऐसा?
किया उपकार मुझ पर है, करूँ फिर क्यों नहीं मैं?
पिता की बात से विचलित लगूँ शायद कहीं मैं!
" कहा है मित्रा उसको, तो सुयोधन मित्रा मेरा,
भले ही चित्रा हो; मेरे हृदय का चित्रा मेरा;
कभी क्या छोड़ सकता मित्रा को अपने सुयश में?
अगर चाहूँ भी ऐसा तो नहीं यह हृदय वश में।
" विपद में मित्रा को जो छोड़ देता, घोर पातक,
भले ही क्वार कुछ छोड़े न छोड़े, पर न चातक।
मेरा जीवन समर्पित मित्रा की खातिर, सही है,
बड़ा इससे नहीं यह राजवैभव या मही है।
" हुआ आदेश तो स्वीकार है मन से वृषाली,
सुयोधन के बिना तो मन-हृदय का धाम खाली।
नहीं है सूतवंशी, यह सुयोधन ने कहा था,
कहूँ क्या, किस तरह आभार में यह मन झुका था।
" मुदा मन डोल जाता क्यों, सुनूँ जो 'सूतवंशी' ,
छुपी कितनी घृणा है, पाप यह तो कृत्य कंशी;
अगर मैं सारथी का पुत्रा हूँ, तो क्या हुआ यह,
कहो क्या सारथी होना नहीं होता कला यह?
" ज़रूरत जब पड़ेगी सारथी सुर तक बनेंगे,
मनुजता के विरोधी उस समय तब क्या कहेंगे? "
ये कहते-कहते रूँधा था अचानक कंठ रवि का,
संझाती रंग-सा दिखने लगा था रूप छवि का।
हुई नीलाम्बरी-सी सृष्टि जो अब तब सलेटी,
लगा श्यामा ही जैसे केश खोले नभ पर लेटी;
उसी के बीच ही पदचाप कुछ ध्वनियाँ हुई थीं,
बहुत मद्धिम कि जैसे ओस की बूँदे चुई थीं।
लगा यूँ कर्ण को वह नींद में था, जग गया है,
नई है सृष्टि जो कुछ भी दिखे, सब कुछ नया है;
नहीं यह सोच पाया कर्ण ही क्या स्वाप में था,
समाधि टूटी ही क्यों; कैसा अजपाजाप में था।
तभी फिर कर्ण के कानों से टकराई वही लय,
" तुम्हारा यश, तुम्हारा कृत्य, कालातीत-अक्षय;
प्रवाहित रक्त है तुममें मेरा ही; पुण्य बरसे,
सुधा, संजीविनी आए हलाहल से जहर से।
" जगत को दे रहा आलोक है जल कर दिवाकर,
उठो तुम सूर्यवंशी, सृष्टि की विपदा उठा कर;
धरा पर कर्म का ही धर्म रहता है अडिग, चिर,
उसीके सामने भी काल दिखता शान्त, नतसिर।
" सँभालो अंग का शासन धरा पर पुण्य लाने,
झुकी जो पाप से धरती, उसे ऊपर उठाने।
इसी से लोक आलोकित बनेगा, भूमि सारी,
नहीं मैं ही तुम्हारे साथ हूँ, माँ भी तुम्हारी। "
सुना तो कर्ण ने, पर मौन गिरि-सा लौट आया,
समुंदर पर लहरता मीन फिर जल में समाया।