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प्रभातक चित्रागीत / राजकमल चौधरी
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कमल के वन
श्वेत ऊषाके गगन
नवसिन्दूरित सीथ सन होइत अति रक्ताभ
तम ने कत्तउ, ने कत्तउ घन, रूपमयि ई प्रकृति घन-घन
किरन माँगय जिनगी, किरन माँगय आत्मा, तन (प्रान)
परंच
एक्को छन ने होइए, मोन हम्मर संच
देखि कय ई क्षितिज नीलाभ
होइत सन रक्ताभ
भेटय जकरासँ-सौन्दर्यटा के लाभ
मादक प्रभात
मनुआँक धार, कोसीक कात
घटवाहिका सुन्दरी गजगामिनी के भीड़
खिल खिल हँसी, मोहक मदिर मुस्कान
ग्राम्या के अधर पर जयदेव के पद-गान
माछे जकाँ, अप्सरि जकाँ बोहिआयब करैत असनान
परंच
कोनो ठाम नइँ चलैत कामप्रत्यंचा
देखि क’ ई ग्राम्य धारक तीर
रूपयौवन चांचल्यक भीड़-होइए ने कनिओ पीर?