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प्रभुता के मद का विध्वंसक कोप / त्रिलोचन

कलकत्ता बंबई हेठ थे उस के आगे,
कुंभ नगर था भी क्या, दो दिन का मेला था ।
पथिक दूर से आए, ठहरे, रम कर भागे
मेले ने कुछ तो चिंताओं को ठेला था,
महामरण का चंड गदाभिघात झेला था
मूक देश ने दुःशासन का । याद आज भी
हूक जगा देती है, पाँव तले ढेला था
कड़ा नुकीला मानो । अगर स्वतन्त्र राज भी
जनता की जीवन-रक्षा का प्रथम काज भी
न कर सके तो किस मतलब के लिए राज है?
जैसा घोड़ा हो वैसा चाहिए साज भी
शासन का प्रमाद बिल्कुल कोढ़ की खाज है ।

कुंभ नगर माया का पुर था, लोप हो गया,
प्रभुता के मद का विध्वंसक कोप हो गया ।

रचनाकाल : मई 1973, 'सर्वनाम' में प्रकाशित