प्रलंब-वध / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
कान्ह चढ़ाय एककेँ दोसर दौड़ लगाबथ दूर दुरंत
हुड़बा छुवि घूरत जे पहिने से जीतत बाजी बलवंत
बढ़ि कय लंब प्रलंब जवान कहल, बलदाउ चढ़थु मम कान्ह
देखिअ सबहु कोना हम लगले फीरि अबैछी छुवि ओ बान्ह
हुलसि प्रलंब कान्ह पर लय बलराम दौड़ि पड़ दूर-दुरंत
चाहल ओतय पटकि चटपट कय दी एकांतहि प्राणक अंत
किन्तु स्वयं शेषावतार पृथ्वीक भार जे माथ धयल
तनिक भारसँ सहजहि पस्तमपस्त प्रलंब लंब भूतल
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एहिना विविध रूप धय जत जे कंसक अनुचर असुर छलय
से सब गलल-पचल हिमकण जनु रविक किरणसँ गलय-पचय
ब्रजलीला कत देखि असुर-निकरक नहि हिम्मति हो बहराय
क्रमहि कमल, कमलक दलकेँ हिम हेमन्तक ऋतु दैछ गलाय
वृषभासुर पुनि व्रजक धेनु वृष वत्सक पीडक उद्धत वेष
तकरहु देल पछाड़ि धर्मवृष रक्षक बनि कय रिपु निःशेष
दुष्ट अरिष्टहुकेँ विनष्ट कय व्योमासुरकेँ व्योम पठाय
असुर निकन्दन नन्दक नन्दन अभिनन्दित छथि जन समुदाय
गो-गोपक पकारी शिशु नारी पर अत्याचारी भेल
कते गनाओल जाय असुर मायावी तत से मारल गेल
कंस ओम्हर किछु सोचि रहल अछि की पुनि करथि, विपत्ति समक्ष
नव उद्योगक हो प्रयोग अछि कृष्ण भविष्णु काल प्रत्यक्ष