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प्रवासीक प्रलाप / राजकमल चौधरी

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कामदग्धा कामिनिक पर्यं कसन ई नगर पटना
छऽ बजल अछि साँछ-केर
चारूकात नगरक जिनगी चमचम करैत अछि
चारूकात नमरल
अगम, अथाह, विस्तृत रूप-सज्जा
भव्य भवनादिक प्रमद सागर अथाह...
जा रहल छी
जन कण्टकाच्छादित राजपथसँ जा रहल छी
मोनमे पछता रहल छी-
किएक त्यागल गाम, महिसी गाम।
फूटि रहल अछि कल्पना केर पाँखि
फूटि गेल अछि भाव-शिवकेर आइ तेसर आँखि
शत-शत बहैत अछि रक्त...

धन्य हे कवि, धन्य तोहर प्राण!
पेट की भरि जायत
जँ देखिते रहब ई पूर्णिमाकेर चान?
धन्य अछि ई काव्यकेर अभियान-
भावना त’ अछि प्रणय केर
किन्तु खाली पेट!
मित्र, नित खाइते रहल छी
‘कंचन-भवन मे हुलसि दूनू साँझ
अध-सीझल भात
दालि गंगाजले सन अति पवित्र,
-आठ आने प्लेट
खाली भेल सौंसे टेंट
मुदा, रहि गेल जरिते पेट...
पेट केर दुर्भाग्य थिक ई दोख अनकार की

गंगाकात दड़िभंगा-घाटमे बैसल
छी करैत विचार
भावक सृजन-शृंगार
कहिआ भेटत
भौजीक रान्हल कबइक झोर
बासमति केर भात
अप्पन महीसक ओ दही अमृत...
कहिआ भेटत
एक्को छनक पलखति कि हुनका...
(कवि-प्रियाकेँ)
देखब कोनो एकान्त क्षणमे
श्लथ-कुंतला, निन्नमे मातलि स्वेद-स्नाता...
कि, कहिआ
गाममे अप्पन
खेत केर मृदु आरि घूरि पर बैसि
गीत कोनो गायब, नहुँए बँसुरी बजायब
‘मनुँआ’ धारमे वंशी खेलायब
हेड़ायल गप्प कोनो मोन पाड़ब
कि जाने...के कहय औ मित्र!
ई काल्हि अयबे नहि करय जँ
आशा केर कोकिल गीत गयबे नहि करय जँ?
के कहय, ई नगर पटना
बाघ बनि क’ गीड़िए टा जाय हमरा?
किन्तु, नहि औ मित्र!
जिनगी केर मोनमे अछि बनि रहल नव चित्र
नहीं कल्पनामे, सत्यमे विश्वास अछि
विश्वास अछि, तेँ प्रगति केर आभास अछि
रूप के सागर-नगर ई अछि
मुदा,
मोनक वज्र प्रस्तर-खण्ड तँ नहि बहि सकैत अछि
रेशमी नूआक आँचरसँ
हृदय नहि बन्हि सकैत अछि!

-वैदेही: नवम्बर, 1956