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प्रश्न - 1 / प्रतिभा सक्सेना

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"पातालों तक जिस वास्तु निपुण की चर्चा,
उस मय दानव की पुत्री,मैं, मन्दोदरि,
पर माता मेरी कौन बताऊं, सीते?
मय-प्रिया स्वर्ग से उतरी हेमा अप्सरि।

इसलिये भ्रमण-रत रही लोक-लोकों में,
सारा संसार घूम देखा बचपन से,
संस्कृतियाँ और सभ्यता सँजोती जिनको,
वे तथ्य खोजती रहती उत्सुक मन से।

सब देश काल से ही निर्धारित होते,।
जल-वायु-गगन-धरती से जुडा हुआ सब,
जीवन को मान-मूल्य दे करते सुन्दर,
ऊपरी भिन्नता समतायें अंतर्हित!"

"माँ, मैने लंका आकर देखा समझा,
ये नई व्यवस्था, ये सब मेरे अपने,
वह छोर अयोध्या पर विस्तार यहाँ तक,
दोनों के तन्तु जोड बुनती हूँ सपने!

अब तक तो मैंने एक पक्ष जाना था,
उसको ही सर्व श्रेष्ठ मंगलमय माना,
सारा संसार उसी के अंतर्गत हो,
उस सीमा में रह उचित इसी को माना।

अब पाई देख कि धरती बहुत बडी है,
कितनी विभिन्नताओं से भरी असीमित,
इसलिये विभिन्न रूप संस्कृतियों के हों,
अनुरूप प्रकृति और देश-काल के वाञ्छित!"

चलती रहती थीं दोनों की चर्चायें,
मन तृप्त हुआ सा परम तोष पा जाता,
कितना अभिन्न, अनुपम अनुभूति भरा है,
यह जन्मदायिनी माँ-पुत्री का नाता!

फिर मनोयोग से बतलाती मंदोदरि,
परिवार-जनों का परिचय, घर की बातें,
दशमुख के माता-पिता सगे-संबंधी,
संवादों में यों ही उड़ जातीं रातें!

आचार-विचार स्वभाव और आपस में
कितना सबसे है जुड़ा दशानन का मन,
कह उठी कि, 'देखो चन्द्रनखा, बेचारी
विधवा हो बैठी अभी देह भर यौवन!"

स्मृति में घूम गया तब वैदेही के,
वह पंचवटी का घोर कालिमामय दिन,
रक्षों-दनुजों के उन्मूलन का व्रत दे,
आवास जहाँ का बता गये थे ऋषिजन!

"क्या प्रणय निवेदन पाप हुआ नारी का,
याचना प्रेम की पड़ी पुरुष को भारी?
तुम ही कह दो सीते, औचित्य विचारो,
यह सहज वृत्ति है नर हो चाहे नारी?"

जिस घटना की थी संभावना न कोई,
जिसकी स्मृति से रोम खड़े हो जायें,
लंकेश्वरि का वह प्रश्न खडा मुँह बाये,
हो किंकर्तव्य जानकी शीष झुकाये!

"अपने ही भगिनी-पति का वध कर बैठा,
करने में विजित कालकेयों को रावण,
धिक्कारा चन्द्रनखा ने रो-रो कर तब,
'संतोष मिल गया कर मेरा सुख भंजन!'

दुर्वेश धरे अति दुखी बहिन के आँसू
रावण के मन को हुआ बहुत पछतावा,
"प्रिय बहिन, बहुत लज्जित हूँ, क्षमा करो तुम,
उस रणोन्माद में कर बैठा अनचाहा!

तुम करो तिरस्कृत दंडित कर लो मुझको,
मेरी सहोदरा, एकमात्र भगिनी तुम!
मैं लाड़-दुलार करूँगा नेह-जतन से
कितना भी आदर-मान तुम्हें दूँ, वह कम।

स्वेच्छा से जियो,निशंक, सदा प्रस्तुत है,
तेरे निवास के लिये सुखद दण्डक वन!
"मैं पतिहीना एकाकी, वहाँ रहूँ जा
हैं गिद्ध-दृष्टि वे रक्ष-विरोधी ऋषिगण!

यह सारी धरती दिति के पुत्रों की थी,
सागर से सागर तक उनका था शासन!
देवों ने छल से उन्हें रसातल भेजा,
सब पर चाहा अपना शासन-अनुशासन!

दशग्रीव बाहुबल से तू विजयी हो कर,
उनको उबार लाया फिर इसी धरा पर,
इसलिये देव संस्कृति की ध्वजा उठाये
वे दिखा रहे हैं अपने तीखे तेवर!

"जो तप से प्राप्त ब्रह्म के वर का फल थी,
तुम भूल गये क्या वही ताटिका यक्षिणि,
पहले तो पति के प्राण लिये ऋषियों ने
फिर दे दे शाप बना डाला नर-भक्षिणि! "

"खर-दूषण दोनों ही मौसेरे भाई,
तेरी सेवा में, तेरे आज्ञाकारी
मैं, लंकापति संरक्षक हूँ, जीवन भर,
मेरी सेवा भी ले, तू है अधिकारी!"

"करने निवास उसकी शासित धरती पर,
निर्वासित राजकुमार भटकते आये,
वह देखा करती उन्हें विचरते प्रतिदिन,
मन ही मन चंद्रनखा ने स्वप्न सजाये!

'जिसने भी नारी जन्म लिया धरती पर,
मातृत्व, सहज अधिकार प्रकृति से पाया,
क्यों वंचित ही रह जाय, जिये कुण्ठित हो,
खोज ले क्यों न अपना सहचर मनभाया?"

वह युक्तिपूर्ण, संगत औ संयत वाणी,
सोचती समझती, विश्लेषण सा करती,
"उनकी सारी योजना यही है सीता,
सारा संसार रहे उनका अनुवर्ती!

सारा भूमण्डल हो उनके अंतर्गत,
सर्वोच्च वही हों, शासक और नियामक!
ये दंभ नहीं है उनका, तो फिर क्या है,
सब चरण-शरण हों दीन और नत मस्तक?"

अपराध, कि पाप किया था चंद्रनखा ने?
तुम वहीं रहीं थीं, सीता, तुम्हीं बताओ ;
एकाकी नारी की ऐसी दुर्गति का,
कोई कारण? हो तो, तुम ही समझाओ!

स्वीकार उक्ति करती वैदेही बोली,
स्वर गहन गुहा से, घोर उदासी मुख पर,
विचलित अशान्त मन उतना ही अड़ जाता,
जितना प्रयत्न करती रक्खूँ संयत कर!

उस संस्कृति में नारी कब मुखर हुई है, ,
मर्यादाओं में लिपटी प्रतिबंधित सी,
स्वाधीन नहीं जीवन के किसी प्रहर में,
अपना मन मारे दण्डित सी कुण्ठित सी!

मैं स्वयं चकित थी, कैसे सम्मुख आकर
वह खुल कर यों ऐसे कह पाई?
प्रस्ताव प्रणय का सुन कर उसके मुख से
मैं विचलित हुई और थोड़ा घबराई!

कौतुक से उसे निहार रहे थे दोनों,
फिर नयनों में उपहास भाव तिर आया,
पहली ही बार देख पाई उस मुख पर
रमणी के प्रति घन तिरस्कार की छाया!

आँखों-आँखों में दोनो समझ हँसे थे,
मन-माना, मनोविनोद उसे कर साधन,
मुसकाकर समझाया, वह अनुज कुँवारा,
मेरे अनुरूप, उसी को वर लो, भामिनि!

मेरे पति को वह बाँट न ले यह भय था,
शंका थी और कुशंकायें थीं भारी,
कन्दुक सा फेर दिया लक्ष्मण ने जैसे,
वह चकराई सी लौटी हारी-हारी!

वह स्वयं-प्रार्थिता उसी पुरुष के आगे,
जो उनके उन्मूलन को है शंसित व्रत,
इस भिन्न मानसिकता की टकराहट में
बच सका नहीं नारी याञ्चा का गौरव!

उस पुनःअगता को उनने धिक्कारा,
निर्लज्ज, पापिनी, उच्छृंखल कह डाला,
हो तिरस्कृता, आरोप प्रतारण सुनकर,
अपमान क्रोध कर गया गौर मुख काला!

'मिथ्यावादी, का-पुरुष,असभ्य निकल जा,
इस जनस्थान में चलता मेरा शासन!
मुख दिखे न तेरा कभी, अन्यथा तुझको
कर अंग-भंग सिखला दूँगी अनुशासन!"

भाई का इंगित, अस्त्र धरे लक्ष्मण ने,
नासिका कर्ण हत, मुख खण्डित कर सारा!
"ऐसी निर्दयता, उत्पीडन, तनभंजन, "मैं चीखी,
"राम, अरे यह क्या कर डाला!"

तो तुरत राम ने ठेल मुझे कुटिया में,
"तुम यहीं रहो" यों कह कर मुझको रोका!
वे पीडा उबले नेत्र, रक्त-धारायें,
चीत्कार घोर, वीभत्स, कराल, विरूपा!

वह आहत दृष्टि बसी इस मन मन में ऐसी,
रह-रह टीसती पके टूटे-काँटे सी
स्तंभित रानी, मूक साँस सी रोके,
भारी हो गई हवा सहसा उपवन की!

बहती धारा रुक गई समय की उस पल,
अवसाद कुण्डली मारे बैठा जम कर,
अनुतप्त, विषण्ण, अवाक्, मूर्तिवत् दोनों,
कहने-सुनने को प्रश्न न कोई उत्तर!

नेत्रोन्मीलन करते, गहरे से नभ का,
अँधियारा झीना हो धुँधला हो आया
छिपते जाते थे तारे, शुक्र चमकता,
उस सूने होते नभ-पट पर उग आया!

लय-बद्ध शुद्ध, गंभीर कण्ठ से उठता,
वेदोच्चारण सुन कर चेतीं लंकेश्वरि,
"हो रहा प्रात अब चलूँ" और वह चल दीं,
थी अभी नहीं उपवन में कोई अनुचरि!

जीवन-धारा आगे बढने के क्रम में,
जाने किस स्तर से गिर पंकिल हो जाये,
सोपानों पर चढने में पल की फिसलन,
क्या पता, न जाने किसे, कहाँ ले जाये!