प्रस्तावना / अशोक वाजपेयी
प्रेम उम्मीद का ही एक प्रकार है। जब हम प्रेम करते हैं तो
दरअसल किसी दूसरे से नहीं बल्कि अपने से भी उम्मीद
बाँधते हैं : संसार से भी, क्योंकि प्रेम ही उसे सह्य बनाता
है और प्राय: वही उसका सत्यापन होता है।
प्रेम में हम अकसर नाउम्मीदी की कगार पर पहुँचते हैं लेकिन
ग़ालिब का पद उधार लेकर कहें, 'दामाने-ख़याले-यार' छूटने
नहीं देते। प्रेम प्रायः जीवन में उन्नीद का आख़िरी मुकाम होता
है।
प्रेम अपना अनन्त रचता है, थोड़ी देर के लिए सही। वह संस्कृति,
समाज और समय को अतिक्रमित करता है। वह पृथ्वी, आकाश
वनस्पतियों, जल और पवन, शब्दों और स्मृतियों सबको रूपक
में बदल देता है। उम्मीद के रूपक।
हमारा समय अगर विचित्र नहीं तो थोड़ा असामान्य ज़रूर है कि
इसमें प्रेम-कविता करने का बचाव करना पड़ता है। मैंने तो सारा
जीवन कविता की पाँच जिल्दें लिखी हैं : प्रेम, मृत्यु, घर, कला,
संसार की जिल्दें। यह संग्रह अधिकतर क्राकोव और पेरिस प्रवास के
दौरान लिखा गया। उसमें वर्ष 2003 में लिखी गई सभी प्रेम-कविताएँ
एकत्र हैं।
अशोक वाजपेयी
25 मई 2004
दिल्ली