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प्रस्ताव-1940 / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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प्रभु अगर तुम कहो कि भिड़ना है अमुक राजा के साथ
तो टाल-मटोल किये बिना, मैं तीर-धनुष उठा लूँगा।
वैसे तो बेकार हूँ, फिर मौत से मुझको कैसा डर;
पाँव आगे न बढ़ाऊँ तो खानी पड़ेगी तुम्हारी कोड़े की मार।

हम वैसे ही बे-घर हैं; आसमान ही है घर और बाहर
हे प्रभु, तुमने ही सिखलाया है-यह दुनिया केवल माया है
इसीलिए तो संन्यासी का मन्त्र लिया है आज
फल का लालच नहीं, हम धरते हैं सारी फ़सल तेरे कोठार में।

ओ सौदागर, सारे सन्तरी और सिपाही तुम्हारे हैं
इतनी दया करो, महामानव की बातों का करो प्रसार,
फिर इसके बाद विधाता की करुणा है अपरम्पार
जन-गण के मन विधि-निषेध की डाल दो जं़जीर।

नहीं मिला हथियार इतने दिनों तक, तभी छोड़ी है तान
बचपन में था तीर-धनुष चलाने का अभ्यास।
अगर शत्रुपक्ष कभी दाग़ने लगे अचानक तोप
यही कहूँगा, ‘बेटे, हर कीमत पर रक्षा करना सभ्यता की।’

आँखे बन्द कर, मोड़ लूँगा कान, किसी कोयल की तरफ।