रे प्राणहीन! तेरे द्वारा प्राणो की रक्षा क्या होगी? 
तेरा मन-मानस तो पत्थर है, फिर अमृत वर्षा क्या होगी? 
रे निर्दय, बुद्धिहीन कायर लोगों, तेरे जीवन की गति क्या होगी? 
लहू से भीगे हाथ तेरे, अब कभी न वे टेसू होंगे? 
 पछतावे की प्रतिमूर्ति बने, दुनिया से ही उठ जाओगे, 
अब भी समय पुकार रहा, ममता झोली फैलाए है। 
सब कुछ न्यौछावर कर देगी, पर तुझे न वह मिटने देगी। 
रक्षा का पाठ पढ़ायेगी, आपस प्रेम-मैत्री का फिर शंखनाद बजवाएगी
हिंसा से हिंसा भड़केगी, फिर शान्ति नहीं हो पाएगी, 
चहुं ओर खुशी की धुन निकले, ऐसी मानसिकता कब आएगी, 
रे प्राणहीन तेरे द्वारा प्राणों की रक्षा क्या होगी, 
रे प्राणहीन अब भी जागो भावशून्य
क्रूरता छोड़, नव पथ ले लो।