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प्रात झुकाझुकी भेष छपाय कै / ठाकुर
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प्रात झुकाझुकी भेष छपाय कै, लै गगरी जल कों डगरी ती ।
जानी गई न कितेकऊ वार तें, आन जुरे, जहाँ होरी धरी ती ॥
’ठाकुर’ दौरि परे मोहिं देखत, भाग बची सु कछु सुघरी ती ।
बीर ! जो दौरि किंवार न देउँ री, तौ हुरिहारन हाथ परी ती ॥