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प्रारम्भ / मनोज कुमार झा
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बार-बार घड़े में अशर्फियों की आस
बार-बार धरती पर उम्मीद की चोट
बार-बार लगती पाँव में कुदाल
बार-बार घड़े में बालू का घर
बार-बार बैठता कलेजे पर गिद्ध
बार-बार रोपता छाती पर ताड़
बार-बार माथे पर रात की शाख
बार-बार कंठ में नींद का झाग
बार-बार भोर में ओस और सूर्य
बार-बार खुरेठता आँगन को कुक्कुर
बार-बार लीपना हरसिंगार की छाँह
बार-बार सोचना क्या रहना ऐसी जगह
बार-बार बदलना खिड़की का पर्दा
बार-बार शोर कि नहीं बचेगी पृथ्वी
बार-बार जल अड़हुल की जड़ में ।