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प्रियतम, क्यों यह ढीठ समीरण / अज्ञेय
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प्रियतम, क्यों यह ढीठ समीरण,
किस अनजाने क्षण में आ कर, जाता है बिखरा-बिखरा कर
मेरे राग-भरे ओठों को सम्भ्रम नीरव कम्पन?
प्रियतम, क्यों यह सौरभ छलिया,
मेरा दीर्घ प्रयास विफल कर, इस अबाध में गल-घुल-मिल कर
समुद्र परस्पर उलझा जाता मेरी अलकावलियाँ?
प्रियतम, क्यों ये हिमकर-तारे,
तम से भर कर मेरे लोचन हर कर उन का अभिव्यंजन-धन
मुझे लूट तमसा रजनी में लुट-लुट जाते सारे?
प्रियतम क्यों यह गति जीवन की,
कर अविभूत अखिल अवनी को चली लीलने प्रणय-कली को
सृष्टि जीत कर भी रह जाती भूखी मेरे धन की?
प्रियतम मेरी ओछी क्षमता,
प्रेमशक्ति भी पा न बढ़ी क्यों? मैं निर्वाक् विमूढ़ खड़ी क्यों?
अपने को अपनाने में विघ्न हुई क्यों ममता!
लाहौर, 1935