भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रियतम मेरे, मैं प्रियतम की / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
प्रियतम मेरे, मैं प्रियतम की, रहती सदा उन्हीं के पास।
एकमेक रहते नित घुल-मिल, नित्य बना रहता सहवास॥
हैं हम दोनों सदा एकरस, एक दूसरेके आधार।
सुख सुखके, जीवन जीवनके, मन मनके एकान्त उदार॥
मिलना और बिछुडऩा कैसा, कैसा हम दोनोंका भेद।
कैसा सुख संयोग-जनित, फिर कैसा वह वियोगका खेद॥
एक तवका एक तवमें होता शुचि लीला-विस्तार।
नित्य बने दो करते हैं हम अपनेमें ही नित्य विहार॥