प्रियतम से / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
अगम-सिन्धु में डगमग-डगमग होती मेरी नैया।
आवो-आवो पार लगाओ खेवनहार कन्हैया॥
बीहड़ बन में भटक रहा यह व्याकुल विपथ बटोही।
निज मंज़िल की राह बताओ ओ प्रीतम निर्मोही॥
जीवन-वन यह रसविहीन-सा लगता सूना-सूना।
धधक रहा रह-रह कर इसमें दुख दावानल दूना॥
अन्तर्नभ में सुख-सावन की सरस पवन बन डोलो।
अपने रस की नव रिमझिम से अब तो इसे भिगो लो॥
जग से नाता तोड़, मोड़ मुख आकुल और उदासे।
टेर रहे घनश्याम! तुम्हें ही प्राण पपीहे प्यासे॥
कितनी बार शरत्-पूनम है आ-आकर मुसकायी।
किन्तु यहाँ पर मोहन! तुमने मुरली कहाँ बजायी॥
क्षण-क्षण में आशा होती है, अब आये, अब आये।
ललक रही आँखें पल-पल में पथ पर पलक बिछाये॥
बाट जोहते युग बीता है, बढ़ती है बेहाली।
कब आओगे इस मधुबन में ओ मेरे बनमाली॥
बीत चला चुपके-चुपके ही यह मधुमास सलोना।
कभी नहीं मुखरित हो पाया इस निकुंज का कोना॥
ओ मेरे मतवाले कोकिल, आज मधुर रस घोलो।
एक बार भी तो तुम आकर इस डाली पर बोलो॥
बड़ी साध से राह देखती बन कर गोपकिशोरी।
मेरे घर में आज कन्हैया! हो माखन की चोरी॥
भाव-भरी चंचल चितवन से मुझे लुभाने आवो।
मुरली के स्वर-संकेतों में मुझे बुलाने आवो॥
मेरी बुनी हुई चीजों को तुम उधेड़ने आवो।
पग-पग पर मेरे मन-मोहन! मुझे छेड़ने आवो॥
मुसकाते मुख-चन्द्र मनोरम लिये नयन मधुमाते।
मन्दिर में मेरे तुम आकर करो सरस रस-बातें॥
जड़-जंगम में दीख रहे तुम व्याप्त व्योम में तुम हो।
मन-प्राणों में तुम्ही प्राण धन! रोम-रोम में तुम हो॥
तो भी दृग को सुलभ तुम्हारी क्यों न हुई छवि-छाया।
कैसा जादू ओ मायावी! कैसी है यह माया॥
व्यथा-वेदना मेरी तुमसे जाकर कौन बताये।
कंठागत पागल प्राणों को कौन आज समझाये॥
क्या तुमसे है छिपा जगत् में बोलो घट-घट वासी।
जान-जान अनजान हुए तुम बैठे बने उदासी॥
आज तुम्हारे लिये वृत्तियाँ अंतर की मचली हैं।
आज विरहिणी तड़प रही ज्यों जल-विहीन मछली है॥
आज मिलन की तीव्र लालसा जाग उठी प्राणों में।
दृग में पानी लिये प्रज्वलित आग उठी प्राणों में॥