प्रिये! तुम्हारी मधुर मनोहर स्मृति / हनुमानप्रसाद पोद्दार
प्रिये! तुम्हारी मधुर मनोहर स्मृति का होता नहीं बिराम।
सदा तुम्हारी मूर्ति-माधुरी रहती मुझसे मिली ललाम॥
मुझे बनाने को अपना, अति तुमने किया अनोखा त्याग।
जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति-तुरियमें रक्खा मुझमें ही अनुराग॥
नहीं लिया देनेपर भी कुछ जगका सुख-वैभव-सौभाग्य।
दिव्य लोक, कैवल्य मुक्ति में भी रक्खा अनुपम वैराग्य॥
फिर, उस शुचि वैराग्य विलक्षण में भी नहीं रखा कुछ राग।
उसकी भी परवाह न की, करके मुझमें विशुद्ध मधु-राग॥
नहीं तुम्हारे मनमें भोगासक्ति, नहीं वैराग्यासक्ति।
भोग-त्याग कर त्याग सभी, की मुझमें ही अनन्य अनुरक्ति॥
बना तुम्हारा शुचि सेवक मैं, बना ऋणी रहता मैं सत्य।
रहती बसी प्रियतमे! तुम मेरे बाह्यस्नयन्तरमें नित्य॥
रसमय मैं अति स-रस तुम्हारा निर्मल रस चखनेके हेतु।
रहता नित्य प्रलुध छोड़ मर्यादा, तोड़ सभी श्रुति-सेतु॥
प्रिये! तुम्हारे लिये सहज बन रहता मैं कामी, निष्काम।
सहज तुम्हारे रसका लोभी-मैं रस-रत रहता अभिराम॥
भोग मोक्षकी शुद्ध कामनाका भी जिसमें रहा न शेष।
वही मधुर रस निर्मल मुझको आकर्षित करता सविशेष॥
तुम अति, और तुम्हारी व्यूह-स्वरूपा गोपीगण भी धन्य।
जिनमें भरा समुद्र इसी रसका लहराता नित्य अनन्य॥