प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ३
नयन रंजन अंजन मंजु सी।
छविमयी रज श्यामल गात की।
जननि थीं कर से जब पोंछतीं।
उलहती तब वेलि विनोद की॥41॥
जब कभी कुछ लेकर पाणि में।
वदन में ब्रजनन्दन डालते।
चकित-लोचन से अथवा कभी।
निरखते जब वस्तु विशेष को॥42॥
प्रकृति के नख थे तब खोलते।
विविध ज्ञान मनोहर ग्रन्थि को।
दमकती तब थी द्विगुणी शिखा।
महरि मानस मंजु प्रदीप की॥43॥
कुछ दिनों उपरान्त ब्रजेश के।
चरण भूपर भी पड़ने लगे।
नवल नूपुर औ कटिकिंकिणी।
ध्वनित हो उठने गृह में लगी॥44॥
ठुमुकते गिरते पड़ते हुए।
जननि के कर की उँगली गहे।
सदन में चलते जब श्याम थे।
उमड़ता तब हर्ष-पयोधि था॥45॥
क्वणित हो करके कटिकिंकिणी।
विदित थी करती इस बात को।
चकितकारक पण्डित मण्डली।
परम अद्भुत बालक है यही॥46॥
कलित नूपुर की कल-वादिता।
जगत को यह थी जतला रही।
कब भला न अजीब सजीवता।
परस के पद पंकज पा सके॥47॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
ऐसा प्यारा विधु छवि जयी आलयों का उँजाला।
शोभावाला अतुल-सुख का धाम माधुर्यशाली।
जो पाया था सुअन सुभगा नन्द-अर्धांगिनी ने।
तो यत्नों के बल न उनका कौन था पुण्य जागा॥48॥
देखा होगा जिस सु-तिय ने नन्द के गेह जाके।
प्यारी लीला जलद-तन की मोद नन्दांगना का।
कैसे पाते विशद फल हैं पुण्यकारी मही में।
जाना होगा इस विषय को तद्गता हो उसी ने॥49॥
प्राय: जाके कुँवर-छवि मैं मत्त हो देखती थी।
मदोन्मत्ता महिषि-मुख को देख थी स्वर्ग छूती।
दौड़े माँ के निकट जब थे श्याम उत्फुल्ल जाते।
तो वे भी थीं ललक उनको अंक ले मुग्ध होती॥50॥
मैं देवी की इस अनुपमा मुग्धता में रसों की।
नाना धारें समुद लख थी सिक्त होती सुधा से।
ऑंखों में है भगिनि, अब भी दृश्य न्यारा समाया।
हा! भूली हूँ न अब तक मैं आत्म-उत्फुल्लता को॥51॥
जाना जाता सखि यह नहीं कौन सा पाप जागा।
सोने ऐसा सुख-सदन जो आज है ध्वंस होता।
अंगों में जो परम सुभगा थी न फूली समाती।
हा! पाती हूँ विरह-दव में दग्ध होती उसी को॥52॥
हा! क्या सारे दिवस सुख के हो गये स्वर्गवासी।
या डूबे जा सलिल-निधि के गर्भ में वे दुखी हो।
आके छाई महिषि-मुख में म्लानता है कहाँ की।
हा! देखूँगी न अब उसको क्या खिले पद्म सा मैं॥53॥
सारी बातें दुखित बनिता की भरी दु:ख गाथा।
धीरे-धीरे श्रवण करके एक बाला प्रवीणा।
हो हो खिन्ना विपुल पहले धीरता-त्याग रोई।
पीछे आहें, भर विकल हो यों व्यथा-साथ बोली॥54॥
द्रुतविलम्बित छन्द
निकल के निज सुन्दर सद्म से।
जब लगे ब्रज में हरि घूमने।
जब लगी करने अनुरंजिता।
स्वपथ को पद पंकज लालिमा॥55॥
तब हुई मुदिता शिशु-मण्डली।
पुर-वधू सुखिता बहु हर्षिता।
विविध कौतुक और विनोद की।
विपुलता ब्रज-मंडल में हुई॥56॥
पहुँचते जब थे गृह में किसी।
ब्रज-लला हँसते मृदु बोलते।
ग्रहण थीं करती अति-चाव से।
तब उन्हें सब सद्म-निवासिनी॥57॥
'मधुर भाषण से गृह-बालिका।
अति समादर थी करती सदा।
सरस माखन औ दधि दान से।
मुदित थी करती गृह-स्वामिनी॥58॥
कमल लोचन भी कल उक्ति से।
सकल को करते अति मुग्ध थे।
कलित क्रीड़न नूपुर नाद से।
भवन भी बनता अति भव्य था॥59॥
स-बलराम स-बालक मण्डली।
विहरते बहु मंदिर में रहे।
विचरते हरि थे अकले कभी।
रुचिर वस्त्र विभूषण से सजे॥60॥