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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - २

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ऐ संतप्ता-विरह-विधुरा गोपियों किन्तु कोई।
थोड़ा सा भी कुँवर-वर के मर्म का है न ज्ञाता।
वे जी से हैं अवनिजन के प्राणियों के हितैषी।
प्राणों से है अधिक उनको विश्व का प्रेम प्यारा॥21॥

स्वार्थों को औ विपुल-सुख को तुच्छ देते बना हैं।
जो आ जाता जगत-हित है सामने लोचनों के।
हैं योगी सा दमन करते लोक-सेवा निमित्त।
लिप्साओं से भरित उर की सैकड़ों लालसायें॥22॥

ऐसे-ऐसे जगत-हित के कार्य्य हैं चक्षु आगे।
हैं सारे ही विषम जिनके सामने श्याम भूले।
सच्चे जी से परम-व्रत के व्रती हो चुके हैं।
निष्कामी से अपर-कृति के कूल-वर्ती अत: हैं॥23॥

मीमांसा हैं प्रथम करते स्वीय कर्तव्य ही की।
पीछे वे हैं निरत उसमें धीरता साथ होते।
हो के वांछा-विवश अथवा लिप्त हो वासना से।
प्यारे होते न च्युत अपने मुख्य-कर्तव्य से हैं॥24॥

घूमूँ जा के कुसुम-वन में वायु-आनन्द मैं लूँ।
देखूँ प्यारी सुमन-लतिका चित्त यों चाहता है।
रोता कोई व्यथित उनको जो तभी दीख जावे।
तो जावेंगे न उपवन में शान्ति देंगे उसे वे॥25॥

जो सेवा हों कुँवर करते स्वीय-माता-पिता की।
या वे होवें स्व-गुरुजन को बैठ सम्मान देते।
ऐसे वेले यदि सुन पड़े आर्त-वाणी उन्हें तो।
वे देवेंगे शरण उसको त्याग सेवा बड़ों की॥26॥

जो वे बैठे सदन करते कार्य्य होवें अनेकों।
औ कोई आ कथन उनसे यों करे व्यग्र हो के।
गेहों को है दहन करती वधिता-ज्वाल-माला।
तो दौड़ेंगे तुरत तज वे कार्य्य प्यारे-सहस्रों॥27॥

कोई प्यारा-सुहृद उनका या स्व-जातीय-प्राणी।
दुष्टात्मा हो, मनुज-कुल का शत्रु हो, पातकी हो।
तो वे सारी हृदय-तल की भूल के वेदनायें।
शास्ता हो के उचित उसको दण्ड औ शास्ति देंगे॥28॥

हाथों में जो प्रिय-कुँवर के न्यस्त हो कार्य्य कोई।
पीड़ाकारी सकल-कुल का जाति का बांधवों का।
तो हो के भी दुखित उसको वे सुखी हो करेंगे।
जो देखेंगे निहित उसमें लोक का लाभ कोई॥29॥

अच्छे-अच्छे बहु-फलद औ सर्व-लोकोपकारी।
कार्यों की है अवलि अधुना सामने लोचनों के।
पूरे-पूरे निरत उनमें सर्वदा हैं बिहारी।
जी से प्यारी ब्रज-अवनि में हैं इसी से न आते॥30॥

हो जावेंगी बहु-दुखद जो स्वल्प शैथिल्य द्वारा।
जो देवेंगी सु-फल मति के साथ सम्पन्न हो के।
ऐसी नाना-परम-जटिला राज की नीतियाँ भी।
बाधाकारी कुँवर चित की वृत्ति में हो रही हैं॥31॥

तो भी मैं हूँ न यह कहता नन्द के प्राण-प्यारे।
आवेंगे ही न अब ब्रज में औ उसे भूल देंगे।
जो है प्यारा परम उनका चाहते वे जिसे हैं।
निर्मोही हो अहह उसको श्याम कैसे तजेंगे॥32॥

हाँ! भावी है परम-प्रबला दैव-इच्छा बली है।
होते-होते जगत कितने काम ही हैं न होते।
जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी मध्य आये।
तो थोड़ा भी हृदय-बल की गोपियो! खो न देना॥33॥

जो संतप्ता-सलिल-नयना-बालिकायें कई हैं।
ऐ प्राचीन-तरल-हृदया-गोपियों स्नेह-द्वारा।
शिक्षा देना समुचित इन्हें कार्य्य होगा तुमारा।
होने पावें न वह जिससे मोह-माया-निमग्ना॥34॥

जो बूझेगा न ब्रज कहते लोक-सेवा किसे हैं।
जो जानेगा न वह, भव के श्रेय का मर्म क्या है।
जो सोचेगा न गुरु-गरिमा लोक के प्रेमिकों की।
कर्तव्यों में कुँवर-वर को तो बड़ा-क्लेश होगा॥35॥

प्राय: होता हृदय-तल है एक ही मानवों का।
जो पाता है न सुख यक तो अन्य भी है न पाता।
जो पीड़ायें-प्रबल बन के एक को हैं सताती।
तो होने से व्यथित बचता दूसरा भी नहीं है॥36॥

जो ऐसी ही रुदन करती बलिकायें रहेंगी।
पीड़ायें भी विविध उनको जो इसी भाँति होंगी।
यों ही रो-रो सकल ब्रज जो दग्ध होता रहेगा।
तो आवेगा ब्रज-अधिप के चित्त को चैन कैसे॥37॥

जो होवेगा न चित उनका शान्त स्वच्छन्दचारी।
तो वे कैसे जगत-हित को चारुता से करेंगे।
सत्काय्र्यों में परम-प्रिय के अल्प भी विघ्न-बाधा।
कैसे होगी उचित, चित में गोपियो, सोच देखो॥38॥

धीरे-धीरे भ्रमित-मन को योग-द्वारा सम्हालो।
स्वार्थों को भी जगत-हित के अर्थ सानन्द त्यागो।
भूलो मोहो न तुम लख के वासना-मुर्तियों को।
यों होवेगा दुख शमन औ शान्ति न्यारी मिलेगी॥39॥

ऊधो बातें, हृदय-तल की वेधिनी गूढ़ प्यारी।
खिन्ना हो हो स-विनय सुना सर्व-गोपी-जनों ने।
पीछे बोलीं अति-चकित हो म्लान हो उन्मना हो।
कैसे मूर्खा अधम हम सी आपकी बात बूझें॥40॥