भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ५

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

था मेघ शून्य नभ उज्ज्वल-कान्तिवाला।
मालिन्य-हीन मुदिता नव-दिग्वधू थी।
थी भव्य-भूमि गत-कर्दम स्वच्छ रम्या।
सर्वत्र धौत जल निर्मलता लसी थी॥81॥

कान्तार में सरित-तीर सुगह्नरों में।
थे मंद-मंद बहते जल स्वच्छ-सोते।
होती अजस्र उनमें ध्वनि थी अनूठी।
वे थे कृती शरद की कल-कीर्ति गाते॥82॥

नाना नवागत-विहंग-बरूथ-द्वारा।
वापी तड़ाग सर शोभित हो रहे थे।
फूले सरोज मिष हर्षित लोचनों से।
वे हो विमुग्ध जिनको अवलोकते थे॥83॥

नाना-सरोवर खिले-नव-पंकजों को।
ले अंक में विलसते मन-मोहते थे।
मानो पसार अपने शतश: करों को।
वे माँगते शरद से सु-विभूतियाँ थे॥84॥

प्यारे सु-चित्रित सितासित रंगवाले।
थे दीखते चपल-खंजन प्रान्तरों में।
बैठी मनोरम सरों पर सोहती थी।
आई स-मोद ब्रज-मध्य मराल-माला॥85॥

प्राय: निरम्बु कर पावस-नीरदों को।
पानी सुखा प्रचुर-प्रान्तर औ पथों का।
न्यारे-असीम-नभ में मुदिता मही में।
व्यापी नवोदित-अगस्त नई-विभा थी॥86॥

था क्वार-मास निशि थी अति-रम्य-राका।
पूरी कला-सहित शोभित चन्द्रमा था।
ज्योतिर्मयी विमलभूत दिशा बना के।
सौंदर्य्य साथ लसती क्षिति में सिता थी॥87॥

शोभा-मयी शरद की ऋतु पा दिशा में।
निर्मेघ-व्योम-तल में सु-वसुंधरा में।
होती सु-संगति अतीव मनोहरा थी।
न्यारी कलाकर-कला नव स्वच्छता की॥88॥

प्यारी-प्रभा रजनि-रंजन की नगों को।
जो थी असंख्य नव-हीरक से लसाती।
तो वीचि में तपन की प्रिय-कन्यका के।
थी चारु-पूर्ण मणि मौक्तिक के मिलाती॥89॥

थे स्नात से सकल-पादप चन्द्रिका से।
प्रत्येक-पल्लव प्रभा-मय दीखता था।
फैली लता विकच-वेलि प्रफुल्ल-शाखा।
डूबी विचित्र-तर निर्मल-ज्योति में थी॥90॥

जो मेदिनी रजत-पत्र-मयी हुई थी।
किम्वा पयोधि-पय से यदि प्लाविता थी।
तो पत्र-पत्र पर पादप-वेलियों के।
पूरी हुई प्रथित-पारद-प्रक्रिया थी॥91॥

था मंद-मंद हँसता विधु व्योम-शोभी।
होती प्रवाहित धारातल में सुधा थी।
जो पा प्रवेश दृग में प्रिय अंशु-द्वारा।
थी मत्त-प्राय करती मन-मानवों का॥92॥

अत्युज्ज्वला पहन तारक-मुक्त-माला।
दिव्यांबरा बन अलौकिक-कौमुदी से।
शोभा-भरी परम-मुग्धकरी हुई थी।
राका कलाकर-मुखी रजनी-पुरंध्ररी॥93॥

पूरी समुज्ज्वल हुई सित-यामिनी थी।
होता प्रतीत रजनी-पति भानु सा था।
पीती कभी परम-मुग्ध बनी सुधा थी।
होती कभी चकित थी चतुरा-चकोरी॥94॥

ले पुष्प-सौरभ तथा पय-सीकरों को।
थी मन्द-मन्द बहती पवनाति प्यारी।
जो थी मनोरम अतीव-प्रफुल्ल-कारी।
हो सिक्त सुन्दर सुधाकर की सुधा से॥95॥

चन्द्रोज्ज्वला रजत-पत्र-वती मनोज्ञा।
शान्ता नितान्त-सरसा सु-मयूख सिक्ता।
शुभ्रांगिनी-सु-पवना सुजला सु-कूला।
सत्पुष्पसौरभवती वन-मेदिनी थी॥96॥

ऐसी अलौकिक अपूर्व वसुंधरा में।
ऐसे मनोरम-अलंकृत-काल को पा।
वंशी अचानक बजी अति ही रसीली।
आनन्द-कन्द ब्रज-गोप-गणाग्रणी की॥97॥

भावाश्रयी मुरलिका स्वर मुग्ध-कारी।
आदौ हुआ मरुत साथ दिगन्त-व्यापी।
पीछे पड़ा श्रवण में बहु-भावकों के।
पीयूष के प्रमुद-वर्ध्दक-बिन्दुओं सा॥98॥

पूरी विमोहित हुईं यदि गोपिकायें।
तो गोप-वृन्द अति-मुग्ध हुए स्वरों से।
फैलीं विनोद-लहरें ब्रज-मेदिनी में।
आनन्द-अंकुर उगा उर में जनों के॥99॥

वंशी-निनाद सुन त्याग निकेतनों को।
दौड़ी अपार जनताति उमंगिता हो।
गोपी-समेत बहु गोप तथांगनायें।
आईं विहार-रुचि से वन-मेदिनी में॥100॥