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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ६

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उत्साहिता विलसिता बहु-मुग्ध-भूता।
आई विलोक जनता अनुराग-मग्ना।
की श्याम ने रुचिर-क्रीड़न की व्यवस्था।
कान्तार में पुलिन पै तपनांगजा के॥101॥

हो हो विभक्त बहुश: दल में सबों ने।
प्रारंभ की विपिन में कमनीय-क्रीड़ा।
बाजे बजा अति-मनोहर-कण्ठ से गा।
उन्मत्त-प्राय बन चित्त-प्रमत्त से॥102॥

मंजीर नूपुर मनोहर-किंकिणी की।
फैली मनोज्ञ-ध्वनि मंजुल वाद्य की सी।
छेड़ी गई फिर स-मोद गई बजाई।
अत्यन्त कान्त कर से कमनीय-वीणा॥103॥

थापें मृदंग पर जो पड़ती सधी थीं।
वे थीं स-जीव स्वर-सप्तक को बनाती।
माधुर्य-सार बहु-कौशल से मिला के।
थीं नाद को श्रुति मनोहरता सिखाती॥104॥

मीठे-मनोरम-स्वरांकित वेणु नाना।
हो के निनादित विनोदित थे बनाते।
थी सर्व में अधिक-मंजुल-मुग्धकारी।
वंशी महा-'मधुर केशव कौशली की॥105॥

हो-हो सुवादित मुकुन्द सदंगुली से।
कान्तार में मुरलिका जब गूँजती थी।
तो पत्र-पत्र पर था कल-नृत्य होता।
रागांगना-विधु-मुखी चपलांगिनी का॥106॥

भू-व्योम-व्यापित कलाधार की सुधा में।
न्यारी-सुधा मिलित हो मुरली-स्वरों की।
धारा अपूर्व रस की महि में बहा के।
सर्वत्र थी अति-अलौकिकता लसाती॥107॥

उत्फुल्ल थे विटप-वृन्द विशेष होते।
माधुर्य था विकच, पुष्प-समूह पाता।
होती विकाश-मय मंजुल बेलियाँ थीं।
लालित्य-धाम बनती नवला लता थीं॥108॥

क्रीड़ा-मयी ध्वनि-मयी कल-ज्योतिवाली।
धारा अश्वेत सरि की अति तद्गता थी।
थी नाचती उमगती अनुरक्त होती।
उल्लासिता विहसिताति प्रफुल्लिता थी॥109॥

पाई अपूर्व-स्थिरता मृदु-वायु ने थी।
मानो अचंचल विमोहित हो बनी थी।
वंशी मनोज्ञ-स्वर से बहु-मोदिता हो।
माधुर्य-साथ हँसती सित-चन्द्रिका थी॥110॥

सत्कण्ठ साथ नर-नारि-समूह-गाना।
उत्कण्ठ था न किसको महि में बनाता।
तानें उमंगित-करी कल-कण्ठ जाता।
तंत्री रहीं जन-उरस्थल की बजाती॥111॥

ले वायु कण्ठ-स्वर, वेणु-निनाद-न्यारा।
प्यारी मृदंग-ध्वनि, मंजुल बीन-मीड़ें।
सामोद घूम बहु-पान्थ खगों मृगों को।
थीं मत्तप्राय नर-किन्नर को बनाती॥112॥

हीरा समान बहु-स्वर्ण-विभूषणों में।
नाना विहंग-रव में पिक-काकली सी।
होती नहीं मिलित थीं अति थीं निराली।
नाना-सुवाद्य-स्वन में हरि-वेणु-तानें॥113॥

ज्यों-ज्यों हुई अधिकता कल-वादिता की।
ज्यों-ज्यों रही सरसता अभिवृध्दि पाती।
त्यों-त्यों कला विवशता सु-विमुग्धता की।
होती गई समुदिता उर में सबों के॥114॥

गोपी समेत अतएव समस्त-ग्वाले।
भूले स्व-गात-सुधि हो मुरली-रसार्द्र।
गाना रुका सकल-वाद्य रुके स-वीणा।
वंशी-विचित्र-स्वर केवल गूँजता था।115॥

होती प्रतीति उर में उस काल यों थी।
है मंत्र साथ मुरली अभिमंत्रिता सी।
उन्माद-मोहन-वशीकरणादिकों के।
हैं मंजु-धाम उसके ऋजु-रंध्र-सातों॥116॥

पुत्र-प्रिया-सहित मंजुल-राग गा-गा।
ला-ला स्वरूप उनका जन-नेत्र-आगे।
ले-ले अनेक उर-वेधक-चारु-तानें।
कीं श्याम ने परम-मुग्धकरी क्रियायें॥117॥

पीछे अचानक रुकीं वर-वेणु तानें।
चावों समेत सबकी सुधि लौट आई।
आनंद-नादमय कंठ-समूह-द्वारा।
हो-हो पड़ीं ध्वनित बार कई दिशाएँ॥118॥

माधो विलोक सबको मुद-मत्त बोले।
देखो छटा-विपिन की कल-कौमुदी में।
आना करो सफल कानन में गृहों से।
शोभामयी-प्रकृति की गरिमा विलोको॥119॥

बीसों विचित्र-दल केवल नारि का था।
यों ही अनेक दल केवल थे नरों के।
नारी तथा नर मिले दल थे सहस्रों।
उत्कण्ठ हो सब उठे सुन श्याम-बातें॥120॥