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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ६

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वह विविध-कथायें देवता-दानवों की।
अनु दिन कहते थे मिष्टता मंजुता से।
वह हँस-हँस बातें थे अनूठी सुनाते।
सुखकर-तरु-छाया में समासीन हो के॥101॥

ब्रज-धन जब क्रीड़ा-काल में मत्त होते।
तब अभि मुख होती मुर्ति तल्लीनता की।
बहु थल लगती थीं बोलने कोकिलायें।
यदि वह पिक का सा कुंज में कूकते थे॥102॥

यदि वह पपीहा की शारिका या शुकी की।
श्रुति-सुखकर-बोली प्यार से बोलते थे।
कलरव करते तो भूरि-जातीय-पक्षी।
ढिग-तरु पर आ के मत्त हो बैठते थे॥103॥

यदि वह चलते थे हंस की चाल प्यारी।
लख अनुपमता तो चित्त था मुग्ध होता।
यदि कलित कलापी-तुल्य वे नाचते थे।
निरुपम पटुता तो मोहती थी मनों को॥104॥

यदि वह भरते थे चौकड़ी एण की सी।
मृग-गण समता की तो न थे ताब लाते।
यदि वह वन में थे गर्जते केशरी सा।
थर-थर कँपता तो मत्त-मातङ्ग भी था॥105॥

नवल-फल-दलों औ पुष्प-संभार-द्वारा।
विरचित करके वे राजसी-वस्तुओं को।
यदि बन कर राजा बैठ जाते कहीं तो।
वह छवि बन आती थी विलोके दृगों से॥106॥

यह अवगत होता है वहाँ-बन्धु मेरे।
कल कनक बनाये दिव्य-आभूषणों को।
स-मुकुट मन-हारी सर्वदा पैन्हते हैं।
सु-जटित जिनमें हैं रत्न आलोकशाली॥107॥

शिर पर उनके है राजता छत्र-न्यारा।
सु-चमर ढुलते हैं, पाट हैं रत्न शोभी।
परिकर-शतश: हैं वस्त्र औ वेशवाले।
विरचित नभ चुम्बी सद्म हैं स्वर्ण द्वारा॥108॥

इन सब विभवों की न्यूनता थी न याँ भी।
पर वह अनुरागी पुष्प ही के बड़े थे।
यह हरित-तृणों से शोभिता भूमि रम्या।
प्रिय-तर उनको थी स्वर्ण-पर्यङ्क से भी॥109॥

यह अनुपम-नीला-व्योम प्यारा उन्हें था।
अतुलित छविवाले चारु-चन्द्रातपों से।
यह कलित निकुंजें थीं उन्हें भूरि प्यारी।
मयहृदय-विमोही-दिव्य-प्रासाद से भी॥110॥

समधिक मणि-मोती आदि से चाहते थे।
विकसित-कुसुमों को मोहिनी मूर्ति मेरे।
सुखकर गिनते थे स्वर्ण-आभूषणों से।
वह सुललित पुष्पों के अलंकार ही को॥111॥

अब हृदय हुआ है और मेरे सखा का।
अहह वह नहीं तो क्यों सभी भूल जाते।
यह नित-नव कुंजें भूमि शोभा-निधाना।
प्रति-दिवस उन्हें तो क्यों नहीं याद आतीं॥112॥

सुन कर वह प्राय: गोप के बालकों से।
दुखमय कितने ही गेह की कष्ट-गाथा।
वन तज उन गेहों मध्य थे शीघ्र जाते।
नियमन करने को सर्ग-संभूत-बाधा॥113॥

यदि अनशन होता अन्न औ द्रव्य देते।
रुज-ग्रसित दिखाता औषधी तो खिलाते।
यदि कलह वितण्डावाद की वृध्दि होती।
वह मृदु-वचनों से तो उसे भी भगाते॥114॥

'बहु नयन, दुखी हो वारि-धारा बहा के।'
पथ प्रियवर का ही आज भी देखते हैं।
पर सुधि उनकी भी हा! उन्होंने नहीं ली।
वह प्रथित दया का धाम भूला उन्हें क्यों॥115॥

पद-रज ब्रज-भू है चाहती उत्सुका हो।
कर परस प्रलोभी वृन्द है पादपों का।
अधिक बढ़ गई है लोक के लोचनों की।
सरसिज मुख-शोभा देखने की पिपासा॥116॥

प्रतपित-रवि तीखी-रश्मियों से शिखी हो।
प्रतिपल चित से ज्यों मेघ को चाहता है।
ब्रज-जन बहु तापों से महा तप्त हो के।
बन घन-तन-स्नेही हैं समुत्कण्ठ त्योंही॥117॥

नव-जल-धर-धारा ज्यों समुत्सन्न होते।
कतिपय तरु का है जीवनाधार होती।
हितकर दुख-दग्धों का उसी भाँति होगा।
नव-जलद शरीरी श्याम का सद्म आना॥118॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कथन यों करते ब्रज की व्यथा।
गगन-मण्डल लोहित हो गया।
इस लिए बुध-ऊद्धव को लिये।
सकल ग्वाल गये निज-गेह को॥119॥