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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - १

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द्रुतविलम्बित छन्द

त्रि-घटिका रजनी गत थी हुई।
सकल गोकुल नीरव-प्राय था।
ककुभ व्योम समेत शनै: शनै:।
तमवती बनती ब्रज-भूमि थी॥1॥

ब्रज-धराधिप मौन-निकेत भी।
बन रहा अधिकाधिक-शान्त था।
तिमिर भी उसके प्रति-भाग में।
स्व-विभुता करता विधि-बध्द था॥2॥

हरि-सखा अवलोकन-सूत्र से।
ब्रज - रसापति - द्वार - समागता।
अब नहीं दिखला पड़ती रही।
गृह-गता-जनता अति शंकिता॥3॥

सकल-श्रांति गँवा कर पंथ की।
कर समापन भोजन की क्रिया।
हरि सखा अधुना उपनीत थे।
द्युति-भरे-सुथरे-यक-सद्म में॥4॥

कृश-कलेवर चिन्तित व्यस्त घी।
मलिन आनन खिन्नमना दुखी।
निकट ही उनके ब्रज-भूप थे।
विकलताकुलता-अभिभूत से॥5॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

आवेगों से विपुल विकला शीर्ण काया कृशांगी।
चिन्ता-दग्ध व्यथित-हृदया शुष्क-ओष्ठा अधीरा।
आसीना थीं निकट पति के अम्बु-नेत्र यशोदा।
खिन्ना दीना विनत-वदना मोह-मग्ना मलीना॥6॥

द्रुतविलम्बित छन्द

अति-जरा विजिता बहु-चिन्तिता।
विकलता-ग्रसिता सुख-वंचिता।
सदन में कुछ थीं परिचारिका।
अधिकृता - कृशता - अवसन्नता॥7॥

मुकुर उज्ज्वल-मंजु निकेत में।
मलिनता-अति थी प्रतिबिम्बिता।
परम - नीरसता - सह - आवृता।
सरसता-शुचिता-युत-वस्तु थी॥8॥

परम - आदर - पूर्वक प्रेम से।
विपुल-बात वियोग-व्यथा-हरी।
हरि-सखा कहते इस काल थे।
बहु दुखी अ-सुखी ब्रज-भूप से॥9॥

विनय से नय से भय से भरा।
कथन ऊद्धव का मधु में पगा।
श्रवण थीं करती बन उत्सुका।
कलपती-कँपती ब्रजपांगना॥10॥

निपट-नीरव-गेह न था हुआ।
वरन हो वह भी बहु-मौन ही।
श्रवण था करता बलवीर की।
सुखकरी कथनीय गुणावली॥11॥

मालिनी छन्द

निज मथित-कलेजे को व्यथा साथ थामे।
कुछ समय यशोदा ने सुनी सर्व-बातें।
फिर बहु विमना हो व्यस्त हो कंपिता हो।
निज-सुअन-सखा से यों व्यथा-साथ बोलीं॥12॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

प्यासा-प्राणी श्रवण करके वारि के नाम ही को।
क्या होता है पुलकित कभी जो उसे पी न पावे।
हो पाता है कब तरणि का नाम है त्राण-कारी।
नौका ही है शरण जल में मग्न होते जनों की॥13॥

रोते-रोते कुँवर-पथ को देखते-देखते ही।
मेरी ऑंखें अहह अति ही ज्योति-हीना हुई हैं।
कैसे ऊधो भव-तम-हरी ज्योति वे पा सकेंगी।
जो देखेंगी न मृदु-मुखड़ा इन्दु-उन्माद-कारी॥14॥

सम्वादों से श्रवण-पुट भी पूर्ण से हो गये हैं।
थोड़ा छूटा न अब उनमें स्थान सन्देश का है।
सायं प्रात: प्रति-पल यही एक-वांछा उन्हें है।
प्यारी-बातें 'मधुर-मुख की मुग्ध हो क्यों सुनें वे॥15॥

ऐसे भी थे दिवस जब थी चित्त में वृध्दि पाती।
सम्वादों को श्रवण करके कष्ट उन्मूलनेच्छा।
ऊधो बीते दिवस अब वे, कामना है बिलीना।
भोले भाले विकच मुख की दर्शनोत्कण्ठता में॥16॥

प्यासे की है न जल-कण से दूर होती पिपासा।
बातों से है न अभिलषिता शान्ति पाता वियोगी।
कष्टों में अल्प उपशम भी क्लेश को है घटाता।
जो होती है तदुपरि व्यथा सो महा दुर्भगा है॥17॥

मालिनी छन्द

सुत सुखमय स्नेहों का समाधार सा है।
सदय हृदय है औ सिंधु सौजन्य का है।
सरल प्रकृति का है शिष्ट है शान्त धी है।
वह बहु विनयी, है 'मूर्ति' आत्मीयता की॥18॥

तुम सम मृदुभाषी धीर सद्बंधु ज्ञानी।
उस गुण-मय का है दिव्य सम्वाद लाया।
पर मुझ दुख-दग्ध भाग्यहीनांगना की।
यह दुख-मय-दोषा वैसि ही है स-दोषा॥19॥

हृदय-तल दया के उत्स-सा श्याम का है।
वह पर-दुख को था देख उन्मत्त होता।
प्रिय-जननि उसी की आज है शोक-मग्ना।
वह मुख दिखला भी क्यों न जाता उसे है॥20॥