प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ - ५
वे थे विनम्र बन के मिलते बड़ों से।
थे बात-चीत करते बहु-शिष्टता से।
बातें विरोधाकर थीं उनको न प्यारी।
वे थे न भूल कर भी अप्रसन्न होते॥81॥
थे प्रीति-साथ मिलते सब बालकों से।
थे खेलते सकल-खेल विनोद-कारी।
नाना-अपूर्व-फल-फूल खिला-खिला के।
वे थे विनोदित सदा उनको बनाते॥82॥
जो देखते कलह शुष्क-विवाद होता।
तो शान्त श्याम उसको करते सदा थे।
कोई बली नि-बल को यदि था सताता।
वे तो तिरस्कृत किया करते उसे थे॥83॥
होते प्रसन्न यदि वे यह देखते थे।
कोई स्व-कृत्य करता अति-प्रीति से है।
यों ही विशिष्ट-पद गौरव की उपेक्षा।
देती नितान्त उनके चित को व्यथा थी॥84॥
माता-पिता गुरुजनों वय में बड़ों को।
होते निराद्रित कहीं यदि देखते थे।
तो खिन्न हो दुखित हो लघु को सुतों को।
शिक्षा समेत बहुधा बहु-शास्ति देते॥85॥
थे राज-पुत्र उनमें मद था न तो भी।
वे दीन के सदन थे अधिकांश जाते।
बातें-मनोरम सुना दुख जानते थे।
औ थे विमोचन उसे करते कृपा से॥86॥
रोगी दुखी विपद-आपद में पड़ों की।
सेवा सदैव करते निज-हस्त से थे।
ऐसा निकेत ब्रज में न मुझे दिखाया।
कोई जहाँ दुखित हो पर वे न होवें॥87॥
संतान-हीन-जन तो ब्रज-बंधु को पा।
संतान-वान निज को कहते रहे ही।
संतान-वान जन भी ब्रज-रत्न ही का।
संतान से अधिक थे रखते भरोसा॥88॥
जो थे किसी सदन में बलवीर जाते।
तो मान वे अधिक पा सकते सुतों से।
थे राज-पुत्र इस हेतु नहीं; सदा वे।
होते सुपूजित रहे शुभ-कर्म्म द्वारा॥89॥
भू में सदा मनुज है बहु-मान पाता।
राज्याधिकार अथवा धन-द्रव्य-द्वारा।
होता परन्तु वह पूजित विश्व में है।
निस्स्वार्थ भूत-हित औ कर लोक-सेवा॥90॥
थोड़ी अभी यदिच है उनकी अवस्था।
तो भी नितान्त-रत वे शुभ-कर्म्म में हैं।
ऐसा विलोक वर-बोध स्वभाव से ही।
होता सु-सिध्द यह है वह हैं महात्मा॥91॥
विद्या सु-संगति समस्त-सु-नीति शिक्षा।
ये तो विकास भर की अधिकारिणी हैं।
अच्छा-बुरा मलिन-दिव्य स्वभाव भू में।
पाता निसर्ग कर से नर सर्वदा है॥92॥
ऐसे सु-बोध मतिमान कृपालु ज्ञानी।
जो आज भी न मथुरा-तज गेह आये।
तो वे न भूल ब्रज-भूतल को गये हैं।
है अन्य-हेतु इसका अति-गूढ़ कोई॥93॥
पूरी नहीं कर सके उचिताभिलाषा।
नाना महान जन भी इस मेदिनी में।
होने निरस्त बहुधा नृप-नीतियों से।
लोकोपकार-व्रत में अवलोक बाधा॥94॥
जी में यही समझ सोच-विमूढ़-सा हो।
मैं क्या कहूँ न यह है मुझको जनाता।
हाँ, एक ही विनय हूँ करता स-आशा।
कोई सु-युक्ति ब्रज के हित की करें वे॥95॥
है रोम-रोम कहता घनश्याम आवें।
आ के मनोहर-प्रभा मुख की दिखावें।
डालें प्रकाश उर के तम को भगावें।
ज्योतिर्विहीन-दृग की द्युति को बढ़ावें॥96॥
तो भी सदैव चित से यह चाहता हूँ।
है रोम-कूप तक से यह नाद होता।
संभावना यदि किसी कु-प्रपंच की हो।
वो श्याम-मूर्ति ब्रज में न कदापि आवें॥97॥
कैसे भला स्व-हित की कर चिन्तनायें।
कोई मुकुन्द-हित-ओर न दृष्टि देगा।
कैसे अश्रेय उसका प्रिय हो सकेगा।
जो प्राण से अधिक है ब्रज-प्राणियों का॥98॥
यों सर्व-वृत्त कहके बहु-उन्मना हो।
आभीर ने वदन ऊधो का विलोका।
उद्विग्नता सु-दृढ़ता अ-विमुक्त वांछा।
होती प्रसूत उसकी खर-दृष्टि से थी॥99॥
ऊधो विलोक करके उसकी अवस्था।
औ देख गोपगण को बहु-खिन्न होता।
बोले गिरा 'मधुर शान्ति-करी विचारी।
होवे प्रबोध जिससे दुख-दग्धितों का॥100॥
द्रुतविलम्बित छन्द
तदुपरान्त गये गृह को सभी।
ब्रज विभूषण-कीर्ति बखानते।
विबुध पुंगव ऊधो को बना।
विपुल बार विमोहित पंथ में॥101॥