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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - ३

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अनेक-आकार-प्रकार-रंग के।
सुधा-समोये फल-पुंज से सजा।
विराजता अन्य रसाल तुल्य था।
समोदकारी अमरूद रोदसी॥41॥

स्व-अंक में पत्र प्रसून मध्य में।
लिये फलों व्याज सु-मूर्ति शंभु की।
सदैव पूजा-रत सानुराग था।
विलोलता-वर्जित-वृक्ष-बिल्व का॥42

कु-अंगजों की बहु-कष्टदायिता।
बता रही थी जन-नेत्र-वान को।
स्व-कंटकों से स्वयमेव सर्वदा।
विदारिता हो बदरी-द्रुमावली॥43॥

समस्त-शाखा फल फूल मूल की।
सु-पल्लवों की मृदुता मनोज्ञता।
प्रफुल्ल होता चित था नितान्त ही।
विलोक सागौन सुगीत सांगता॥44॥

नितान्त ही थी नभ-चुम्बनोत्सुका।
द्रुमोच्चता की महनीय-मुर्ति थी।
खगादि की थी अनुराग-वर्ध्दिनी।
विशालता-शालविशाल-काय की॥45॥

स्वगात की श्यामलता विभूति से।
हरीतिमा से घन-पत्र-पुंज की।
अछिद्र छायादिक से तमोमयी।
वनस्थली को करता तमाल था॥46॥

विचित्रता दर्शक-वृन्द-दृष्टि में।
सदा समुत्पादन में समर्थ था।
स-दर्प नीचा तरु-पुंज को दिखा।
स्व-शीश उत्तोलन ताल वृन्द का॥47॥

सु-पक्व पीले फल-पुंज व्याज से।
अनेक बालेंदु स्वअङ्क में उगा।
उड़ा दलों व्याज हरी-हरी ध्वजा।
नितांत केला कल-केलि-लग्न था॥48॥

स्वकीय आरक्त प्रसून-पुंज से।
विहंग भृङ्गादिक को भ्रमा-भ्रमा।
अशंकितों सा वन-मध्य था खड़ा।
प्रवंचना-शील विशाल-शाल्मली॥49॥

बढ़ा स्व-शाखा मिष हस्त प्यार का।
दिखा घने-पल्लव की हरीतिमा।
परोपकारी-जन-तुल्य सर्वदा।
सशोक का शोक अ-शोक मोचता॥50॥

विमुग्धकारी-सित-पीत वर्ण के।
सुगंध-शाली बहुश: सु-पुष्प से।
असंख्य-पत्रावलि की हरीतिमा।
सुरंजिता थी प्रिय-पारिजात की॥51॥

समीर-संचालित-पत्र-पुंज में।
स्वगात की मत्तकरी-विभूति से।
विमुग्ध हो विह्नलताभिभूत था।
मधूक शाखी-मधुपान-मत्त सा॥52॥

प्रकाण्डता थी विभु कीर्ति-वर्ध्दिनी।
अनंत-शाखा-बहु-व्यापमान थी।
प्रकाशिका थी पवन प्रवाह की।
विलोलता-पीपल-पल्लवोद्भवा॥53॥

असंख्य-न्यारे-फल-पुंज से सजा।
प्रभूत-पत्रावलि में निमग्न सा।
प्रगाढ़ छायाप्रद औ जटा-प्रसू।
विटानुकारी-वट था विराजता॥54॥

महा-फलों से सजके वनस्थली।
जता रही थी यह बुध्दि-मंत को।
महान-सौभाग्य प्रदान के लिए।
प्रयोगिता है पनसोपयोगिता॥55॥

सदैव दे के विष बीज-व्याज से।
स्वकीय-मीठे-फल के समूह को।
दिखा रहा था तरु वृन्द में खड़ा।
स्व-आततायीपन पेड़ आत का॥56॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

प्यारे-प्यारे-कुसुम-कुल से शोभमाना अनूठी।
काली नीली हरित रुचि की पत्तियों से सजीली।
फैली सारी वन अवनि में वायु से डोलती थीं।
नाना-लीला निलय सरसा लोभनीया-लतायें॥57॥

वंशस्थ छन्द

स्व-सेत-आभा-मय दिव्य-पुष्प से।
वसुन्धरा में अति-मुक्त संज्ञका।
विराजती थी वन में विनोदिता।
महान - मेधाविनि - माधवी - लता॥58॥

ललामता कोमलकान्ति-मानता।
रसालता से निज पत्र-पुंज की।
स्वलोचनों को करती प्रलुब्ध थी।
प्रलोभनीया-लतिका लवंग की॥59॥

स-मान थी भूतल में विलुण्ठिता।
प्रवंचिता हो प्रिय चारु-अंक से।
तमाल के से असितावदात की।
प्रियोपमा श्यामलता प्रियंगु की॥60॥