प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ - १
मन्दाक्रान्ता छन्द
तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम-लाली।
पक्षी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।
शाखा डोली तरु निचय की कंज फूले सरों में।
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े तामसी रात बीती॥1॥
फूली फैली लसित लतिका वायु में मन्द डोली।
प्यारी-प्यारी ललित-लहरें भानुजा में विराजीं।
सोने की सी कलित किरणें मेदिनी ओर छूटीं।
कूलों कुंजों कुसुमित वनों में जगी ज्योति फैली॥2॥
प्रात: शोभा ब्रज अवनि में आज प्यारी नहीं थी।
मीठा-मीठा विहग रव भी कान को था न भाता।
फूले-फूले कमल दव थे लोचनों में लगाते।
लाली सारे गगन-तल की काल-व्याली समा थी॥3॥
चिन्ता की सी कुटिल उठतीं अंक में जो तरंगें।
वे थीं मानो प्रकट करतीं भानुजा की व्यथायें।
धीरे-धीरे मृदु पवन में चाव से थी न डोली।
शाखाओं के सहित लतिका शोक से कंपिता थी॥4॥
फूलों-पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें दिखातीं।
रोते हैं या विटप सब यों ऑंसुओं को दिखा के।
रोई थी जो रजनि दुख से नंद की कामिनी के।
ये बूँदें हैं, निपतित हुईं या उसी के दृगों से॥5॥
पत्रों पुष्पों सहित तरु की डालियाँ औ लतायें।
भींगी सी थीं विपुल जल में वारि-बूँदों भरी थीं।
मानो फूटी सकल तन में शोक की अश्रुधारा।
सर्वांगों से निकल उनको सिक्तता दे बही थी॥6॥
धीरे-धीरे पवन ढिग जा फूलवाले द्रुमों के।
शाखाओं से कुसुम-चय को थी धरा पै गिराती।
मानो यों थी हरण करती फुल्लता पादपों की।
जो थी प्यारी न ब्रज-जन को आज न्यारी व्यथा से॥7॥
फूलों का यों अवनि-तल में देख के पात होना।
ऐसी भी थी हृदय-तल में कल्पना आज होती।
फूले-फूले कुसुम अपने अंक में से गिरा के।
बारी-बारी सकल तरु भी खिन्नता हैं दिखाते॥8॥
नीची-ऊँची सरित सर की बीचियाँ ओस बूँदें।
न्यारी आभा वहन करती भानु की अंक में थीं।
मानो यों वे हृदय-तल के ताप को थीं दिखाती।
या दावा थी व्यथित उर में दीप्तिमाना दुखों की॥9॥
सारा नीला-सलिल सरि का शोक-छाया पगा था।
कंजों में से मधुप कढ़ के घूमते थे भ्रमे से।
मानो खोटी-विरह-घटिका सामने देख के ही।
कोई भी थी अवनत-मुखी कान्तिहीना मलीना॥10॥
द्रुतविलम्बित छन्द
प्रगट चिन्ह हुए जब प्रात के।
सकल भूतल औ नभदेश में।
जब दिशा सितता-युत हो चली।
तममयी करके ब्रजभूमि को॥11॥
मुख-मलीन किये दुख में पगे।
अमित-मानव गोकुल ग्राम के।
तब स-दार स-बालक-बालिका।
व्यथित से निकले निज सद्म से॥12॥
बिलखती दृग वारि विमोचती।
यह विषाद-मयी जन-मण्डली।
परम आकुलतावश थी बढ़ी।
सदन ओर नराधिप नन्द के॥13॥
उदय भी न हुए जब भानु थे।
निकट नन्दनिकेतन के तभी।
जन समागम ही सब ओर था।
नयन गोचर था नरमुण्ड ही॥14॥
वसन्ततिलका छन्द
थे दीखते परम वृध्द नितान्त रोगी।
या थी नवागत वधू गृह में दिखाती।
कोई न और इनको तज के कहीं था।
सूने सभी सदन गोकुल के हुए थे॥15॥
जो अन्य ग्राम ढिग गोकुल ग्राम के थे।
नाना मनुष्य उन ग्राम-निवासियों के।
डूबे अपार-दुख-सागर में स-बामा।
आके खड़े निकट नन्द-निकेत के थे॥16॥
जो भूरि भूत जनता समवेत वाँ थी।
सो कंस भूप भय से बहु कातरा थी।
संचालिता विषमता करती उसे थी।
संताप की विविध-संशय की दुखों की॥17॥
नाना प्रसंग उठते जन-संघ में थे।
जो थे सशंक सबको बहुश: बनाते।
था सूखता धार औ कँपता कलेजा।
चिन्ता अपार चित में चिनगी लगाती॥18॥
रोना महा-अशुभ जान प्रयाण-काल।
ऑंसू न ढाल सकती निज नेत्र से थी।
रोये बिना न छन भी मन मानता था।
डूबी दुविधा जलधि में जन मण्डली थी॥19॥