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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ - ३

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        पक्षी की औ सुरभि सब की देख ऐसी दशायें।
        थोड़ी जो थी अहह! वह भी धीरता दूर भागी।
        हा हा! शब्दों सहित इतना फूट के लोग रोये।
        हो जाती थी निरख जिसको भग्न छाती शिला की॥41॥

आवेगों के सहित बढ़ता देख संताप-सिंधु।
धीरे-धीरे ब्रज-नृपति से खिन्न अक्रूर बोले।
देखा जाता ब्रज दुख नहीं शोक है वृध्दि पाता।
आज्ञा देवें जननि पग छू यान पै श्याम बैठें॥42॥

        आज्ञा पाके निज जनक की, मान अक्रूर बातें।
        जेठे-भ्राता सहित जननी-पास गोपाल आये।
        छू माता के पग कमल को धीरता साथ बोले।
        जो आज्ञा हो जननि अब तो यान पै बैठ जाऊँ॥43॥

दोनों प्यारे कुँवरवर के यों बिदा माँगते ही।
रोके ऑंसू जननि दृग में एक ही साथ आयें।
धीरे बोलीं परम दुख से जीवनाधार जाओ।
दोनों भैया विधुमुख हमें लौट आके दिखाओ॥44॥

        धीरे-धीरे सु-पवन बहे स्निग्ध हों अंशुमाली।
        प्यारी छाया विटप वितरें शान्ति फैले वनों में।
        बाधायें हों शमन पथ की दूर हों आपदायें।
        यात्रा तेरी सफल सुत हो क्षेम से गेह आओ॥45॥

ले के माता-चरणरज को श्याम औ राम दोनों।
आये विप्रों निकट उनके पाँव की वन्दना की।
भाई-बन्दों सहित मिलके हाथ जोड़ा बड़ों को।
पीछे बैठे विशद रथ में बोध दे के सबों को॥46॥

        दोनों प्यारे कुँवर वर को यान पै देख बैठा।
        आवेगों से विपुल विवशा हो उठीं नन्दरानी।
        ऑंसू आते युगल दृग से वारि-धारा बहा के।
        बोलीं दीना सदृश पति से दग्ध हो हो दु:खों से॥47॥

मालिनी छन्द

अहह दिवस ऐसा हाय! क्यों आज आया।
निज प्रियसुत से जो मैं जुदा हो रही हूँ।
अगणित गुणवाली प्राण से नाथ प्यारी।
यह अनुपम थाती मैं तुम्हें सौंपती हूँ॥48॥

        सब पथ कठिनाई नाथ हैं जानते ही।
        अब तक न कहीं भी लाडिले हैं पधारे।
        'मधुर फल खिलाना दृश्य नाना दिखाना।
        कुछ पथ-दुख मेरे बालकों को न होवे॥49॥

खर पवन सतावे लाडिलों को न मेरे।
दिनकर किरणों की ताप से भी बचाना।
यदि उचित जँचे तो छाँह में भी बिठाना।
मुख-सरसिज ऐसा म्लान होने न पावे॥50॥

        विमल जल मँगाना देख प्यासा पिलाना।
        कुछ क्षुधित हुए ही व्यंजनों को खिलाना।
        दिन वदन सुतों का देखते ही बिताना।
        विलसित अधरों को सूखने भी न देना॥51॥

युग तुरग सजीले वायु से वेग वाले।
अति अधिक न दौड़ें यान धीरे चलाना।
बहु हिल कर हाहा कष्ट कोई न देवे।
परम मृदुल मेरे बालकों का कलेजा॥52॥

        प्रिय! सब नगरों में वे कुबामा मिलेंगी।
        न सुजन जिनकी हैं वामता बूझ पाते।
        सकल समय ऐसी साँपिनों से बचाना।
        वह निकट हमारे लाडिलों के न आवें॥53॥

जब नगर दिखाने के लिए नाथ जाना।
निज सरल कुमारों को खलों से बचाना।
संग-संग रखना औ साथ ही गेह लाना।
छन सुअन दृगों से दूर होने न पावें॥54॥

        धनुष मख सभा में देख मेरे सुतों को।
        तनिक भृकुटि टेढ़ी नाथ जो कंस की हो।
        अवसर लख ऐसे यत्न तो सोच लेना।
        न कुपित नृप होवें औ बचें लाल मेरे॥55॥

यदि विधिवश सोचा भूप ने और ही हो।
यह विनय बड़ी ही दीनता से सुनाना।
हम बस न सकेंगे जो हुई दृष्टि मैली।
सुअन युगल ही हैं जीवनाधार मेरे॥56॥

        लख कर मुख सूखा सूखता है कलेजा।
        उर विचलित होता है विलोके दुखों के।
        शिर पर सुत के जो आपदा नाथ आई।
        यह अवनि फटेगी औ समा जाऊँगी मैं॥57॥

जगकर कितनी ही रात मैंने बिताई।
यदि तनिक कुमारों को हुई बेकली थी।
यह हृदय हमारा भग्न कैसे न होगा।
यदि कुछ दुख होगा बालकों को हमारे॥58॥

        कब शिशिर निशा के शीत को शीत जाना।
        थर-थर कँपती थी औ लिये अंक में थी।
        यदि सुखित न यों भी देखती लाल को थी
        सब रजनि खड़े औ घूमते ही बिताती॥59॥

निज सुख अपने मैं ध्यान में भी न लाई।
प्रिय सुत सुख ही से मैं सुखी हूँ कहाती।
मुख तक कुम्हलाया नाथ मैंने न देखा।
अहह दुखित कैसे लाडिले को लखूँगी॥60॥